Thursday 11 February 2016

Six pack banaye 30 din me

Step 1: Sit ups marna
Six Pack Kaise Banaye - SitUps
Six Pack Kaise Banaye – SitUps
Jamin par so jaye, घुटने  Uthaye, Hat mod le. Kisi se aapke Ghutne pakdne ke liye kahiye.
Barabar position lene ke bad, Apne sharir ko upar uthay. Hat mode hi rkahe., Upar uthne ke bad kuch seconds wese hi rahe, aur dhirese fir se piche jaye, let jaye jamin pe. Hat mode hi rakhe.
Is exercise se aapke abs ke muscles strong banege. Aur unka  achha shape banata jayega. Ek hapte ke andar aapko result dikhne lagega.
Step 2: jackknife Situps
Six Pack Kaise Banaye - SitUps
Six Pack Kaise Banaye – SitUps
Ise Jackknife Situps kehte he, ye exercise six pack banae me bahut help krti he.
Jamin par let jaye, hat sidhe, pair bhi sidhe. Abhi ek sath hath aur pair upar uthane he, pura sharis upar uthaiye,  kuch second hold karke rakhiye, aur firse niche jamin par let jaye,
Step 3: Butt Ups
Six Pack Kaise Banaye - ButUps
Six Pack Kaise Banaye – ButUps
Is exercise me aap hath jamin par pair jamin par, aapka baki sharir hawa me siddha, abhi aapko apni kamar upar kijiye, thodi der wese hi position me rahiye, bad me firse original position par aa jayiye. bohot assan he.




Step 4: Roj Cycling kijiye
Six Pack Kaise Banaye - Cycling
Cycling Kare – Fats kum Kare
Cycling sehat ke liye bohot acchi hoti he. Agar aapko six pack banae he to aapko aapke sarir per se fat kam karna hoga, isliye roj 1 ghanta cycling karni jaruri he.
Comment kare agar koi chhej ke liye adhik jankari chahiye to.
Aap Samjh gaye hoge ki Six Pack Kaise Banaye.
Aapko ye article kaise laga niche comment me likhiye.
http://kaisekare.in/chest-kaise-banaye-body-building/

असली भारतीये हीरो .....सलाम रंजीत कत्याल .......

सन 1990 में कुवैत, सद्दाम हुसैन की दहशत से काँप रहा था और वहां के शाही कुबेरपति रातो रात सऊदी अरब में शरण पाने के लिए रातो रात पलायन कर रहे थे. 
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लाखों लोग सद्दाम द्वारा पैदा की गई भीषण युद्ध की परिस्तिथियों में फंस चुके थे. ऐसे हालात में वहां रह रहे एक लाख सत्तर हज़ारहिंदुस्तानी भारतीय एम्बेसी से याचना कर रहे थे कि किसी तरह उन्हें वहां से निकाला जाए. 
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उस वक्त विश्वनाथ प्रताप सिंह प्रधानमंत्री के पद पर काबिज थे. हमारी विदेश नीति उस दौर में बहुत कमज़ोर थी. ये ऐसा दौर था जब विश्व के ताकतवर देश इराक़ से बेहद नाराज थे और ऐसे हालात में भारत की सरकार अपने लोगों को छुड़ाने के लिए सीधे ईराक से बात करने में कतरा रही थी. सरकार अपने लोगों को सुरक्षित वापस लाने के लिए और दूसरे विकल्पों पर विचार कर रही थी.
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ऐसे में कुवैत में रहने वाला एक अनजान व्यापारी सामने आया. खुद को पहले कुवैती और बाद में भारतीय मानने वाले रंजीत कत्याल ने हमारे लोगों कोबचाने का बीड़ा उठाया। वह बहुत अमीर व्यक्ति था और इस नाते कुवैत के
प्रभावशाली लोगों में उसकी अच्छी पकड़ थी. एक तरह से वह भारत के लिए
पहली और आखिरी उम्मीद बनकर उभरा था.
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सद्दाम हुसैन आधिकारिक रूपसे भारत को अपने लोगों को बचाने की इज़ाज़त नहीं देने वाला था लेकिन
तत्कालीन विदेश मंत्री इंद्रकुमार गुजराल से हुई बातचीत के बाद वह इस बात पर तैयार हो गया कि बिना किसी आधिकारिक घोषणा के भारत अपने लोगों को बचा सकता है.
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कुवैत में हालात बद से बदतर होते जा रहे थे इसलिए भारतीय सेना सीधे तौर पर कुछ नहीं कर पा रही थी. ऐसे में रंजीत कत्याल ने विश्व का सबसे बड़ा बचाव अभियान शुरू करने का फैसला खुद के
दम पर लिया।
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उसने कुवैत के युद्ध प्रभावित हिस्सों में फंसे भारतीयों को अम्मान लेजाना शुरू किया। अम्मान ही वो जगह थी जहाँ से भारतीय विमान अपने लोगों को सुरक्षित ले जा सकते थे. सबसे पहले वृद्ध, बच्चो और महिलाओं
को ले जाने का काम शुरू किया गया. ये अभियान 60 दिन तक चला जिसमे भारत रंजीत कत्याल की मदद से एक लाख सत्तर हज़ार भारतीयों को सुरक्षित वापस लाने में कामयाब रहा.
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अभियान ख़त्म होने के बाद इसे गिनीज बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकार्ड्स में शामिल किया गया क्योकि विश्व मेंअब तक इतना बड़ा बचाव अभियान केवल एक व्यक्ति की मदद से सम्भव हो सका था. ख़ास बात इस अभियान में भारत की सिविल एयर लाइन (एयरइंडिया) ने ये करिश्मा किया क्योकि गुजराल और सद्दाम के गुप्त समझौते के तहत हमारी सेना कुवैत में प्रवेश नहीं कर सकती थी.
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एक लाख सत्तर हज़ार लोगों के लिए देवदूत बने रंजीत कत्याल को कोई भारत रत्न नहीं दिया
गया क्योकि ये अभियान घोषित नहीं था. बाद की सरकारों ने भी उसके इस बेहतरीन काम के लिए कभी कोई शुकराना अदा नहीं किया।
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अब अक्षय कुमार आने वाली फिल्म 'एयर लिफ्ट' में उसी रंजीत कत्याल की भूमिका
निभाने जा रहे हैं. मुझे उम्मीद है कि इस फिल्म को देखने के बाद भारतीय सेल्यूट ठोंककर उनके बेमिसाल काम की सराहना करेंगे।
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भारत में न रहकर भी रंजीत ने एक आदर्श भारतीय होने का गौरव हासिल किया है. इस गुमनाम
हीरो को आप एयरलिफ्ट देखकर सलामी दे सकते हैं
क्योकि सलामी देने के लिए रंजीत की कोई भी फोटो भी उपलब्ध नहीं है.. ..

स्वदेशी अपनाओ, देश बचाओ!

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लूट की खूली छूट !!!
काले लोगो को गोरा करने के नाम पर लूटने वाली कम्पनी हिंदुस्तान यूनिलीवर ने न्यायालय से फटकार खाने के बाद अपने विज्ञापनों में गोरापन शब्द का इस्तेमाल तो बंद कर दिया है पर उसकी जगह निखार शब्द का प्रयोग शुरू किया है यानी शब्द बदल दिए नीयत नहीं बदली|
गाय और सूअर की चर्बी मिलाकर क्रीम बनाने में कोनसे फार्मूला की जरुरत पड़ सकती है भला !!! पर लोगो को बरगलाने के लिए पेक पर विज्ञान के प्रतीक डीएनए का चित्र लगाया गया है जिसे दिखाकर भोले भाले लोगो के मन में यह झूठ बिठाया जा सके कि फेयर एंड लवली को बनाने में बहुत ऊँची टेक्नॉलोजी लगती है|
झूठ फैलाने की हद देखिये कि विज्ञापन में दावा किया गया है कि फेयर एंड लवली लगाने पर फेयरनेस ""ट्रीटमेंट जैसा निखार"" मिलेगा पर नीचे बहुत ही छोटे शब्दों (जो सूक्ष्मदर्शी यानि Microscopic की मदद के बिना नहीं पढ़े जा सकते )में लिखा है कि -
"""हमारा आशय कोस्मेटिक क्षेत्र में प्रयुक्त ट्रीटमेंट से है| परिणाम चिकित्सालय/क्लिनिक में प्रयुक्त ट्रीटमेंट के समान नहीं होंगे| सर्वश्रेष्ठ परिणाम के लिए रोजाना प्रयोग करे|"""
आप समझ सकते है कि ट्रीटमेंट यानी उपचार तो क्लिनिक/चिकित्सालय में ही होता है... कोस्मेटिक से कोनसा ट्रीटमेंट होता है भला !!! फिर रोजाना क्यूँ प्रयोग करे भला||
और इन विज्ञापनों में अंग्रेजी शब्दों को हिंदी लिपि में प्रयोग किया जाता है ताकि अंग्रेजी शब्द पढ़ाकर लोगो के मन में क्वालिटी का झूठ बिठाया जा सके |
पेक पर लिखा है "एडवान्सड मल्टी विटामिन, एक्सपर्ट फेयरनेस सोल्यूशन"
विटामिन कब से लोगो को गोरा बनाने लग गए gasp emoticon @पर मुर्ख लोग इनकी बातो पर आसानी से भरोसा कर लेते है|
एक नमूना देखिये :-
""अब पहले से बेहतर नयी बेस्ट एवर फेयर एंड लवली| बेस्ट एवर फेयर एंड लवली का नॉन ऑयली एडवांस्ड फार्मूला दाग -धब्बे घटाये और पहले से भी बेहतर निखार| ट्रीटमेंट जैसा निखार| बेस्ट एवर फेयर एंड लवली आज ही ट्राई करे|""
अंग्रेजी में लिखे इन शब्दों को पढ़ते ही मुर्ख लोगो को लगता है कि यह बहुत अच्छी व उच्च क्वालिटी की चीज है ...... भले ही वे इनका अर्थ ना समझ सके हो !!!
जरा एक बार ये विङियो देखेँ :-
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पेप्सी और कोकाकोला का बाजा बजाने के बाद स्वदेशी प्रचारकों से हमारा अनुरोध है कि हमारा अगला शिकार फेयर एंड लवली समेत तमाम वो उत्पाद होने चाहिए जो हमारी माताओ बहनों को गोरा होने का सपना दिखाकर हीन भावना से भर देते है और आर्थिक रूप से भी लूट लेते है| अगर हम सब मिलकर इनके विरुद्ध आवाज उठाएंगे तो वो दिन दूर नहीं जब हम पेप्सी और कोकाकोला की तरह हिन्दुस्तान यूनिलीवर का भी बंटाधार करके स्वदेशी की आवाज बुलंद कर देंगे||
स्वदेशी अपनाओ, देश बचाओ!
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वन्दे मातरम्!!

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LAYS चिप्स के पैकेट में जो E631 लिखा है Maggi के पैकेट पर लिखा होता है, Flavour Enhancer E 635 वह दरअसल "सूअर की चर्बी है"!
कमाल है! शायद ही कोई भारतीय परिवार चिप्स आदि से बच पाया होगा!!
बात हो रही E 631 की। जिस किसी भी पदार्थ पर लिखा दिखे E631 तो समझ लीजिए कि उसमे सूअर की चर्बी है!
ये विडियो देखे :-
गूगल से पता चला कि कुछ अरसे पहले यह हंगामा पाकिस्तान में हुआ था जिस पर ढेरों आरोप और सफाइयां दस्तावेजों सहित मौजूद हैं। हैरत की बात यह दिखी कि इस पदार्थ को कई देशों में प्रतिबंधित किया गया है किन्तु अपने देश में धड़ल्ले से उपयोग हो रहा। मूल तौर पर यह पदार्थ सूअर की चर्बी से प्राप्त होता है और ज्यादातर नूडल्स, चिप्स में स्वाद बढाने के लिए किया जाता है। रसायन शास्त्र में इसे Disodium Inosinate कहा जाता है जिसका सूत्र है -
(C)10(H)11(N)4(Na)2(O)8(P)1 होता यह है कि अधिकतर (ठंडे) पश्चिमी देशों में सूअर का मांस बहुत पसंद किया जाता है।
लिंक देखिए :-
वहाँ तो बाकायदा इसके लिए हजारों की तादाद में सूअर फार्म हैं। सूअर ही ऐसा प्राणी है जिसमे सभी जानवरों से अधिक चर्बी होती है। दिक्कत यह है कि चर्बी से बचते हैं लोग। तो फिर इस बेकार चर्बी का क्या किया जाए ?? पहले तो इसे जला दिया जाता था लेकिन फिर दिमाग दौड़ा कर इसका उपयोग साबुन वगैरह में किया गया और यह हिट रहा।
फिर तो इसका व्यापारिक जाल बन गया और तरह तरह के उपयोग होने लगे। नाम दिया गया 'पिग फैट' 1857 का वर्ष तो याद होगा आपको ??
उस समयकाल में बंदूकों की गोलियां पश्चिमी देशों से भारतीय उपमहाद्वीप में समुद्री राह से भेजी जाती थीं और उस महीनों लम्बे सफ़र में समुद्री आबोहवा से गोलियां खराब हो जाती थीं। तब उन पर सूअर चर्बी की परत चढ़ा कर भेजा जाने लगा। लेकिन गोलियां भरने के पहले उस परत को दांतों से काट कर अलग किया जाना होता था। यह तथ्य सामने आते ही जो क्रोध फैला उसकी परिणिति 1857 की क्रांति में हुई बताई जाती है। इससे परेशान हो अब इसे नाम दिया गया 'ऐनिमल फैट' !
मुस्लिम देशों में इसे गाय या भेड़ की चर्बी कह प्रचारित किया गया लेकिन इसके हलाल न होने से असंतोष थमा नहीं और इसे प्रतिबंधित कर दिया गया।
बहुराष्ट्रीय कंपनियों की नींद उड़ गई। आखिर उनका 75 प्रतिशत कमाई मारी जा रही थी इन बातों से। हार कर एक राह निकाली गई। अब गुप्त संकेतो वाली भाषा का उपयोग करने की सोची गई जिसे केवल संबंधित विभाग ही जानें कि यह क्या है! आम उपभोक्ता अनजान रह सब हजम करता रहे। तब जनम हुआ E कोड का तब से यह E 631 पदार्थ कई चीजों में उपयोग किया जाने लगा जिसमे मुख्य हैं टूथपेस्ट, शेविंग क्रीम, च्युंग गम, चॉकलेट, मिठाई, बिस्कुट, कोर्न फ्लैक्स, टॉफी, डिब्बाबंद खाद्य पदार्थ आदि। सूची में और भी नाम हो सकते हैं। हाँ, कुछ मल्टी- विटामिन की गोलियों में भी यह पदार्थ होता है। शिशुयों, किशोरों सहित अस्थमा और गठिया के रोगियों को इस E 631 पदार्थ मिश्रित सामग्री को उपयोग नहीं करने की सलाह है लेकिन कम्पनियाँ कहती हैं कि इसकी कम मात्रा होने से कुछ नहीं होता। पिछले वर्ष खुशदीप सहगल जी ने एक पोस्ट में बताया था कि कुरकुरे में प्लास्टिक होने की खबर है चाहें तो एक दो टुकड़ों को जला कर देख लें। मैंने वैसा किया और पिघलते टपकते कुरकुरे को देख हैरान हो गया।
अब लग रहा कि कहीं वह चर्बी का प्रभाव तो नहीं था ?? अब बताया तो यही जा रहा है कि जहां भी किसी पदार्थ पर लिखा दिखे -
E100,
E 110,
E 120,
E 140,
E 141,
E 153,
E 210,
E 213,
E 214,
E 216,
E 234,
E 252,
E 270,
E 280,
E 325,
E 326,
E 327,
E 334,
E 335,
E 336,
E 337,
E 422,
E 430,
E 431,
E 432,
E 433,
E 434,
E 435,
E 436,
E 440,
E 470,
E 471,
E 472,
E 473,
E 474,
E 475,
E 476,
E 477,
E 478,
E 481,
E 482,
E 483,
E 491,
E 492,
E 493,
E 494,
E 495,
E 542,
E 570,
E 572,
E 631,
E 635,
E 904,
तो समझ लीजिए कि उसमे सूअर की चर्बी है!
ये रसायन जोडो का दर्द (गठिया) और आस्थमा जैसी बीमारियो का कारण है, इसका असर धीमा होता है और धीरे धीरे इसके दुष्परिणाम सामने आते है!
तो आप ये सब खाकर अपना धर्म भ्रष्ट क्यो कर रहे हो, जब कि आप अपने घर पर ही बहुत कुछ शुद्ध बनाकर खा सकते हो!

क्या आप पीसा की झुकी हुई मीनार के बारे में जानते हैं??

 बच्चों की पाठ्य-पुस्तकों से लेकर जवानी तक आप सभी ने पीसा की इस मीनार के बारे में काफी कुछ पढ़ा-लिखा होगा. कई पैसे वाले भारतीय सैलानी तो वहाँ होकर भी आए होंगे. पीसा की मीनार के बारे में, वहाँ हमें बताया जाता है कि उस मीनार की ऊँचाई 180 फुट है और इसके निर्माण में 200 वर्ष लगे थे तथा सन 2010 में इस मीनार ने अपनी आयु के 630 वर्ष पूर्ण कर लिए. हमें और आपको बताया गया है कि यह बड़ी ही शानदार और अदभुत किस्म की वास्तुकला का नमूना है. यही हाल मिस्त्र के पिरामिडों के बारे में भी है. आज की पीढ़ी को यह जरूर पता होगा कि मिस्त्र के पिरामिड क्या हैं, कैसे बने, उसके अंदर क्या है आदि-आदि.
लेकिन क्या आपको तंजावूर स्थित “बृहदीश्वर मंदिर” (Brihadishwara Temple) के बारे में जानकारी है? ये नाम सुनकर चौंक गए ना?? मुझे विश्वास है कि पाठकों में से अधिकाँश ने इस मंदिर के बारे में कभी पढ़ना तो दूर, सुना भी नहीं होगा. क्योंकि यह मंदिर हमारे बच्चों के पाठ्यक्रम में शामिल नहीं है. ना तो भारतवासियों ने कभी अपनी समृद्ध परंपरा, विराट सांस्कृतिक विरासत एवं प्राचीन वास्तुकला के बारे में गंभीरता से जानने की कोशिश की और ना ही पिछले साठ वर्ष से लगभग सभी पाठ्यक्रमों पर कब्जा किए हुए विधर्मी वामपंथियों एवं सेकुलरिज़्म की “भूतबाधा” से ग्रस्त बुद्धिजीवियों ने इसका गौरव पुनर्भाषित एवं पुनर्स्थापित करने की कोई कोशिश की. भला वे ऐसा क्योंकर करने लगे?? उनके अनुसार तो भारत में जो कुछ भी है, वह सिर्फ पिछले 400 वर्ष (250 वर्ष मुगलों के और 150 वर्ष अंग्रेजों के) की ही देन है. उससे पहले ना तो कभी भारत मौजूद था, और ना ही इस धरती पर कुछ बनाया जाता था. “बौद्धिक फूहड़ता” की हद तो यह है कि भारत की खोज वास्कोडिगामा द्वारा बताई जाती है, तो फिर वास्कोडिगामा के यहाँ आने से पहले हम क्या थे?? बन्दर?? या भारत में कश्मीर से केरल तक की धरती पर सिर्फ जंगल ही हुआ करते थे?? स्पष्ट है कि इसका जवाब सिर्फ “नहीं” है. क्योंकि वास्कोडिगामा के यहाँ आने से पहले हजारों वर्षों पुरानी हमारी पूर्ण विकसित सभ्यता थी, संस्कृति थी, मंदिर थे, बाज़ार थे, शासन थे, नगर थे, व्यवस्थाएँ थीं... और यह सब जानबूझकर बड़े ही षडयंत्रपूर्वक पिछली तीन पीढ़ियों से छिपाया गया. उन्हें सिर्फ उतना ही पढ़ाया गया अथवा बताया गया जिससे उनके मन में भारत के प्रति “हीन-भावना” जागृत हो. पाठ्यक्रम कुछ इस तरह रचाए गए कि हमें यह महसूस हो कि हम गुलामी के दिनों में ही सुखी थे, उससे पहले तो सभी भारतवासी जंगली और अनपढ़ थे...
बहरहाल... बात हो रही थी बृहदीश्वर मंदिर की. दक्षिण भारत के तंजावूर शहर में स्थित बृहदीश्वर मंदिर भारत का सबसे बड़ा मंदिर कहा जा सकता है. यह मंदिर “तंजावूर प्रिय कोविल” के नाम से भी प्रसिद्ध है. सन 1010 में अर्थात आज से एक हजार वर्ष पूर्व राजराजा चोल ने इस विशाल शिव मंदिर का निर्माण करवाया था. इस मंदिर की प्रमुख वास्तु (अर्थात गर्भगृह के ऊपर) की ऊँचाई 216 फुट है (यानी पीसा की मीनार से कई फुट ऊँचा). यह मंदिर न सिर्फ वास्तुकला का बेजोड़ नमूना है, बल्कि तत्कालीन तमिल संस्कृति की समृद्ध परंपरा को भी प्रदर्शित करता है. कावेरी नदी के तट पर स्थित यह मंदिर पूरी तरह से ग्रेनाईट की बड़ी-बड़ी चट्टानों से निर्मित है. ये चट्टानें और भारी पत्थर पचास किमी दूर पहाड़ी से लाए गए थे. इसकी अदभुत वास्तुकला एवं मूर्तिकला को देखते हुए UNESCO ने इसे “विश्व धरोहर” के रूप में चिन्हित किया हुआ है. दसवीं शताब्दी में दक्षिण भारत में चोल वंश के अरुलमोझिवर्मन नाम से एक लोकप्रिय राजा थे जिन्हें राजराजा चोल भी कहा जाता था. पूरे दक्षिण भारत पर उनका साम्राज्य था. राजराजा चोल का शासन श्रीलंका, मलय, मालदीव द्वीपों तक भी फैला हुआ था. जब वे श्रीलंका के नरेश बने तब भगवान शिव उनके स्वप्न में आए और इस आधार पर उन्होंने इस विराट मंदिर की आधारशिला रखी. चोल नरेश ने सबसे पहले इस मंदिर का नाम “राजराजेश्वर” रखा था और तत्कालीन शासन के सभी प्रमुख उत्सव इसी मंदिर में संचालित होते थे. उन दिनों तंजावूर चोलवंश की राजधानी था तथा समूचे दक्षिण भारत की व्यापारिक गतिविधियों का केन्द्र भी. इस मंदिर का निर्माण पारंपरिक वास्तुज्ञान पर आधारित था, जिसे चोलवंश के नरेशों की तीन-चार्फ़ पीढ़ियों ने रहस्य ही रखा. बाद में जब पश्चिम से मराठाओं और नायकरों ने इस क्षेत्र को जीता तब इसे “बृहदीश्वर मंदिर” नाम दिया. तंजावुर प्रिय कोविल अपने समय के तत्कालीन सभी मंदिरों के मुकाबले चालीस गुना विशाल था. इसके 216 फुट ऊँचे विराट और भव्य मुख्य इमारत को इसके आकार के कारण “दक्षिण मेरु” भी कहा जाता है. 216 फुट ऊँचे इस शिखर के निर्माण में किसी भी जुड़ाई मटेरियल का इस्तेमाल नहीं हुआ है. इतना ऊँचा मंदिर सिर्फ पत्थरों को आपस में “इंटर-लॉकिंग” पद्धति से जोड़कर किया गया है. इसे सहारा देने के लिए इसमें बीच में कोई भी स्तंभ नहीं है, अर्थात यह पूरा शिखर अंदर से खोखला है. भगवान शिव के समक्ष सदैव स्थापित होने वाली “नंदी” की मूर्ति 16 फुट लंबी और 13 फुट ऊँची है तथा एक ही विशाल पत्थर से निर्मित है. अष्टकोण आकार का मुख्य शिखर एक ही विशाल ग्रेनाईट पत्थर से बनाया गया है. इस शिखर और मंदिर की दीवारों पर चारों तरफ विभिन्न नक्काशी और कलाकृतियां उकेरी गई हैं. गर्भगृह दो मंजिला है तथा शिवलिंग की ऊँचाई तीन मीटर है. आगे आने वाले चोल राजाओं ने सुरक्षा की दृष्टि से 270 मीटर लंबी 130 चौड़ी बाहरी दीवार का भी निर्माण करवाया. सोलहवीं-सत्रहवीं शताब्दी तक यह मंदिर कपड़ा, घी, तेल, सुगन्धित द्रव्यों आदि के क्रय-विक्रय का प्रमुख केन्द्र था. आसपास के गाँवों से लोग सामान लेकर आते, मंदिर में श्रद्धा से अर्पण करते तथा बचा हुआ सामान बेचकर घर जाते. सबसे अधिक आश्चर्य की बात यह है कि यह मंदिर अभी तक छः भूकंप झेल चुका है, परन्तु अभी तक इसके शिखर अथवा मंडपम को कुछ भी नहीं हुआ. दुर्भाग्य की बात यह है कि शिरडी में सांई की “मजार” की मार्केटिंग इतनी जबरदस्त है, परन्तु दुर्भाग्य से ऐसे अदभुत मंदिर की जानकारी भारत में कम ही लोगों को है. इस मंदिर के वास्तुशिल्पी कुंजारा मल्लन माने जाते हैं. इन्होंने प्राचीन वास्तुशास्त्र एवं आगमशास्त्र का उपयोग करते हुए इस मंदिर की रचना में (एक सही तीन बटे आठ या 1-3/8 अर्थात, एक अंगुल) फार्मूले का उपयोग किया. इसके अनुसार इस मात्रा के चौबीस यूनिट का माप 33 इंच होता है, जिसे उस समय "हस्त", "मुज़म" अथवा "किश्कु" कहा जाता था. वास्तुकला की इसी माप यूनिट का उल्लेख चार से छह हजार वर्ष पहले के मंदिरों एवं सिंधु घाटी सभ्यता के निर्माण कार्यों में भी पाया गया है. कितने इंजीनियरों को आज इसके बारे में जानकारी है??
सितम्बर 2010 में इस मंदिर की सहस्त्राब्दि अर्थात एक हजारवाँ स्थापना दिवस धूमधाम से मनाया गया. UNESCO ने इसे “द ग्रेट चोला टेम्पल” के नाम से संरक्षित स्मारकों में स्थान दिया.इसके अलावा केन्द्र सरकार ने इस अवसर को यादगार बनाने के लिए एक डाक टिकट एवं पाँच रूपए का सिक्का जारी किया. परन्तु इसे लोक-प्रसिद्ध बनाने के कोई प्रयास नहीं हुए.
अक्सर हमारी पाठ्यपुस्तकों में पश्चिम की वास्तुकला के कसीदे काढ़े जाते हैं और भारतीय संस्कृति की समृद्ध परंपरा को कमतर करके आँका जाता है अथवा विकृत करके दिखाया जाता है. इस विराट मंदिर को देखकर सहज ही कुछ सवाल भी खड़े होते हैं कि स्वाभाविक है इस मंदिर के निर्माण के समय विभिन्न प्रकार की गणितीय एवं वैज्ञानिक गणनाएँ की गई होंगी. खगोलशास्त्र तथा भूगर्भशास्त्र को भी ध्यान में रखा गया होगा. ऐसा तो हो नहीं सकता कि पत्थर लाए, फिर एक के ऊपर एक रखते चले गए और मंदिर बन गया... जरूर कोई न कोई विशाल नक्शा अथवा आर्किटेक्चर का पैमाना निश्चित हुआ होगा. तो फिर यह ज्ञान आज से एक हजार साल पहले कहाँ से आया? इस मंदिर का नक्शा क्या सिर्फ किसी एक व्यक्ति के दिमाग में ही था और क्या वही व्यक्ति सभी मजदूरों, कलाकारों, कारीगरों, वास्तुविदों को निर्देशित करता था? इतने बड़े-बड़े पत्थर पचास किमी दूर से मंदिर तक कैसे लाए गए?? 80 टन वजनी आधार पर दूसरे बड़े-बड़े पत्थर इतनी ऊपर तक कैसे पहुँचाया गया होगा?? या कोई स्थान ऐसा था, जहाँ इस मंदिर के बड़े-बड़े नक़्शे और इंजीनियरिंग के फार्मूले रखे जाते थे?? फिर हमारा इतना समृद्ध ज्ञान कहाँ खो गया और कैसे खो गया?? क्या कभी इतिहासकारों ने इस पर विचार किया है?? यदि हाँ, तो इसे संरक्षित करने अथवा खोजबीन करने का कोई प्रयास हुआ?? सभी प्रश्नों के उत्तर अँधेरे में हैं.
संक्षेप में तात्पर्य यह है कि भारतीय कला, वास्तुकला, मूर्तिकला, खगोलशास्त्र आदि विषयों पर ज्ञान के अथाह भण्डार मौजूद थे (बल्कि हैं) सिर्फ उन्हें पुनर्जीवित करना जरूरी है. बच्चों को पीसा की मीनार अथवा ताजमहल (या तेजोमहालय??) के बारे में पढ़ाने के साथ-साथ शिवाजी द्वारा निर्मित विस्मयकारी और अभेद्य किलों, बृहदीश्वर जैसे विराट मंदिरों के बारे में भी पढ़ाया जाना चाहिए. इन ऐतिहासिक, पौराणिक स्थलों की “ब्राण्डिंग-मार्केटिंग” समुचित तरीके से की जानी चाहिए, वर्ना हमारी पीढियाँ तो यही समझती रहेंगी कि मिस्त्र के पिरामिडों में ही विशाल पत्थरों से निर्माण कार्य हुआ है, जबकि तंजावूर के इस मंदिर में मिस्त्र के पिरामिडों के मुकाबले चार गुना वजनी पत्थरों से निर्माण कार्य हुआ है
with thanks from SURESH CHIPLUNKAR
http://blog.sureshchiplunkar.com/…/brihadishwara-temple-cla…
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मित्रो आपके रसोई घर से जो पशुओं के खाने योग्य अपशिष्ट (wastage) निकलती है जैसी बची हुई सब्जी , चायपती, रोटी इत्यादि इनको प्लास्टिक के लिफाफे मे डालने की जगह एक अलग डस्टबीन में डालें और इस डस्टबीन को ऐसी जगह डालें जहां पर आवारा पशु आते जाते हो . जिसको ख़ाकर ये भूखे पशु अपनी भूख शांत कर सकते हैं इसके निम्नलिखित लाभ है
1. पशुओं के पेट मे हानिकारक प्लास्टिक नही जायेगा
2. आपके घर के कुडेदान से दूर्गध नही आयेगी
3. देश को साफसुथरा रखने मे मदद मिलेगी
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लंदन का प्रसिद्ध सेंट जेम्स स्कूल .इस विद्यालय का लगभग हर विद्यार्थी संस्कृत भाषा का अध्ययन करता है . इस विद्यालय के अधयापकों से पूछने पर कि आप अपने स्कूल में संस्कृत क्यों पढातें है तो उनका कहना है कि संस्कृत बोलने से हमारे मस्तिष्क में तंरगे (vibrarations ) उत्पन्न होती है उसके कारण मस्तिष्क कई गुना तेज काम करता है और छात्रों का मानसिक विकास होता है .
मित्रो आप भी अपने बच्चों को संस्कृत सिखाइये .तो आप पूछेंगे कि कैसे ? तो इसके लिए आप बच्चों के लिए सप्ताह में कम से कम एक दिन किसी संस्कृत के आचार्य से TUTION दिलवा सकते है
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भारत आज भी दुनिया का बाप है !!

पढें मित्रोँ !
राजीव गांधी जब प्रधानमंत्री थे तो एक बार रोते-रोते अमेरिका पहुँच गये !






मित्रो एक तो हमारे देश मे भिखारियों की बहुत बड़ी समस्या है ! देश का प्रधानमंत्री भी भिख मंगे की तरह ही बात करता है, तो कटोरा लेकर राजीव गांधी पहुँच गये अमेरिका के प्रधानमंत्री रोनाल्ड रीगन के पास ! और कहने लगे हमे सुपर कम्पुटर दे दो ! इस देश के वैज्ञानिको ने बहुत समझाया था कि मत जाइए बेइज्जती हो जाएगी लेकिन नहीं माने क्योंकि उनको धुन स्वार थी की हिंदुस्तान को 21 वीं सदी मे लेकर जाना है (जैसे राजीव गांधी के चाहने पर ही देश 21 वीं सदी मे जाएगा अपने आप नहीं जाएगा) !


पूरी पोस्ट नहीं पढ़ सकते तो यहाँ Click करें !


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तो पहुँच गए भीख मांगने अमेरिका के पास की हमे सुपर कम्पुटर दे दो और क्रायोजेनिक इंजन (अन्तरिक्ष रॉकेट मे आता है) दे दो !! तो रोनाल्ड रीगन ने कहा हम सोचेंगे ! तो कुछ महीनों बाद फिर राजीव गांधी पहुँच गए और पूछा क्या सोचा आपने ???


तो रोनाल्ड रीगन ने कहा हमने सोचा है ना तो हम आपको सुपर कम्पुटर देंगे और न ही क्रायोजेनिक इंजन देंगे ! जबकि अमेरिका की कंपनी IBM के मन मे था की भारत सरकार से कुछ समझौता हो जाए और उसका सुपर कम्पुटर भारत मे बिक जाए ! लेकिन अमेरिका के प्रधानमंत्री रोनाल्ड रीगन ने साफ मना कर दिया कि ये संभव नहीं है ! ना तो बनाने की Technology देंगे और ना ही बना बनाया सुपर कम्पुटर देंगे !! तो बेचारे मुँह लटकाये राजीव गांधी भारत वापिस लौट आए और जो वाशिंगटन मे बेइज्जती हुई वो अलग !!


फिर भारत वापिस आकार CSIR (Council of Scientific and Industrial Research) के वैज्ञानिकों की मीटिंग मे Literally रो पड़े ! और कहा मैं गया था सुपर कंपूटर और क्रायोजेनिक इंजन मांगने लेकिन मुझे नहीं मिला !!


उस समय CSIR के SK जोशी डायरेक्टर हुआ करते थे तो उन्होंने कहा हमने तो आपको पहले ही मना किया था आप क्यों गए थे बेइज़्ज़ती करवाने, झक मारने ?? तो राजीव गांधी ने कहा अब कोई तो रास्ता होगा ? तो कुछ वैज्ञानिकों ने कहा आप रूस से समझौता कर लीजिये ! तो भारत सरकार ने क्रायोजेनिक इंजन लेने का रूस के साथ एक समझौता कर लिया ! लेकिन जब डिलिवरी का समय आया तो अमेरिका ने फिर लंगड़ी मार दी ! अमेरिका ने रूस को ब्लैक लिस्टिड कर दिया !


रूस बेचारा घबरा गया और उसने इंजन देने से मना कर दिया !!


तो अंत मेँ एक दिन हमारे वैज्ञानिको ने कहा आप ये जो कटोरा लेकर भीख मांगते है, क्यों नहीं भारतीय वैज्ञानिकों को कहते हो कि वो सुपर कम्प्यूटर बनाये, क्यों नहीं उन्हे कहते कि वो क्रायोजेनिक इंजन बनाये ! तो राजीव गांधी को भरोसा ही नहीं था कि भारतीय वैज्ञानिक ये बना सकते है ! तो CSIR के लोगों ने उन्हें भरोसा दिलाया आप ये मत मानिए भारतीय वैज्ञानिक भी उतने ही प्रतिभाशाली है जितने अन्य देशों के !! बशर्ते कि उनको काम देने की जरूरत है और प्रोटेक्शन देने की !!


तो अंत राजीव गांधी ने डरते डरते कहा ठीक है भाई आप बना लीजिये ! तो CSIR का एक सहयोगी है पुणे मे CDCC ! तो CDCC के वैज्ञानिकों ने दिन रात मेहनत कर जितना पैसा दिया था और जितना समय दिया था दोनों की बचत करते हुए पहला सुपर कम्प्यूटर बना दिया जिसका नाम था परम 10000 !! इसके अतिरिक्त भारत परम युवा 1, परम युवा 2 और अन्य कितने ही सुपर कम्पुटर बना चुका है !!


ऐसे ही DRDO(Defence Research and Development Organisation) के वैज्ञानिको ने क्रायोजेनिक इंजन भी बनाने मे सफल हो चुके है ! सेटेलाईट की Technology भी हमने दूसरे देशो ने नहीं ली....!


भारत ने अपने सैटेलाईट खुद बनाये है ! और तो और सेटेलाईट बनाने और अन्तरिक्ष मे छोड़ने के मामले मे भारत इतना

आगे निकल चुका है कि 19 देशो के 40 से ज्यादा सेटेलाईट भारत आज अन्तरिक्ष मे छोड़ चुका है !


अभी कुछ दिन पहले आपने टीवी मे देखा होगा जब खुद प्रधानमंत्री मोदी श्रीहरिकोटा मे मौजूद थे, जहां PSLV नामक उपग्रह छोड़ा गया और वो हमारा उपग्रह 5 अन्य देशों के उपग्रहो को भी साथ लेकर उड़ा था !

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भारत के अन्तरिक्ष वैज्ञानिको (ISRO) ने चन्द्र और मंगल पर भेजे मिशन पर अमेरिका से कई गुना कम समय और खर्चे में कार्य पूरा किया !!


चाँद पर जाने का मिशन :-


अमेरिका का Lunar Reconnaissance Orbiter

समय - 3 साल

खर्च - $583 मिलियन

(लगभग 3000 करोड़ रूपए, जब 1 डॉलर = 50 रूपए)

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भारत का चन्द्रयान

बनाने में लगा समय - 18 महीने

कुल खर्च - $59 मिलियन

(लगभग 300 करोड़ रूपए, जब 1 डॉलर = 50 रूपए)

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मंगल मिशन :-


अमेरिका का MAVEN

समय लगा: 5 साल

कुल खर्च : $671 मिलियन

(लगभग 4000 करोड़ रूपए, जब 1 डॉलर = 60 रूपए)

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भारत का मंगलयान:

समय - 18 महीने

खर्चा - $69 मिलियन

(लगभग 400 करोड़ रूपए, जब 1 डॉलर = 60 रूपए)

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मित्रो आज के जमाने मे Technology सबसे बड़ा हथियार है ! तो कोई भी देश आपको अपनी Latest Technology नहीं देगा ! वो लोग वही Technology देंगे जो उनके देश मे बेकार हो चुकी है ! Technology खुद ही विकसित करनी पड़ती है !! भारत सरकार को भारतीय वैज्ञानिको पर भरोसा करना चाहिए !!


पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद !