Tuesday, 23 February 2016

Yog क्या है ?

21वीं सदी में सभी अपने अापको स्वस्थ रखने के लिये सभी नुस्खे अपना चुके है। कुछ अपने आदर्श फिल्मस्‍टारों के जैसे 6 पैक, 8 पैक एब्स बना रहे है तो कुछ युवा जिम (व्यायामशाला) जाकर घण्टों की मेंहनत के बाद अपने शरीर को सुडोल बना रहे है। लेकिन एक नौकरी पैशा आदमी के लिये ये सब मुमकिन ही नही है उसके पास इतना समय ही नही है कि वो रोज सुबह उठकर जिम मे जा सके या शाम को नौकरी के बाद थका हारे बन्दे में व्यायाम करने की तो हिम्मत ही नही होती । परिणाम स्वरूप हमारा शरीर आज के खान-पान से दिन पर दिन कमजोर होता जा रहा है हमारे शरीर की प्रतिरोधक क्षमता दिन पर दिन कम होती जा रही है आज कल आपने सुना होगा कि एक दिन की बारिश में उसको जुकाम या बुखार हो गया ये प्रतिरोधक क्षमता कम होने के कारण है कि आपको नही पता लेकिन आपका शरीर दिन पर दिन कमजोर होता जा रहा है और इसका एक कारण प्रदुषण भी है जो कि हमें हर क्षण महसुस करना पडता है।
आदमी कितना भी तकनिकी क्यों ना हो जाये परन्‍तु जो उसकी जड़े है उनको नही भुलना चाहिये। अगर आपके पास जिम जाने का समय नही है तो कोई बात नही आप घर पर ही कुछ ही समय देकर एक स्वस्थ शरीर की कामना कर सकते है। आपमें में बहुत से लोग सोच रहे होगे कि कैसे : , योग से । जी हॉ आप योग के द्वारा कुछ ही मिनट्स देकर एक स्वस्थ शरीर पा सकते है ।
आईये जानते है कि योग क्या है और इससे हमारा शरीर कैसे स्वस्थ रहता है

योग क्या है ?

योग संस्कृत धातु ‘युज’  से उत्पन्न हुआ है जिसका अर्थ है व्यक्तिगत चेतना या आत्मा का सार्वभौमिक चेतना या रूह से मिलन। योग 5000 वर्ष प्राचीन  भारतीय ज्ञान का समुदाय है। यद्यपि कई लोग योग को केवल शारीरिक व्यायाम  ही मानते हैं जहाँ लोग शरीर को तोड़ते – मरोड़ते हैं और श्वास लेने के जटिल तरीके अपनाते हैं | वास्तव में देखा जाए तो ये क्रियाएँ मनुष्य के मन और आत्मा की अनंत क्षमताओं की तमाम परतों को खोलने वाले ग़ूढ विज्ञान के बहुत ही सतही पहलू से संबंधित हैं|
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सामान्य शब्दों में योग दो शब्दो से मिलकर बना है। पहला शब्द है जोड़ एवं दुसरा शब्द है समधि। जब तक हम स्वय को परमात्मा के चरणों में अर्पित नही कर देते तक समाधि की स्थिति में होना। ये मानना ही बेमानी है। अर्थात हमें पूर्ण रूप से अपने आप को उस परम पिता परमात्मा के सानिध्य में लेना होगा । तभी हम योग के वास्तविक अर्थ को पहचान पायेगे ।

योग का कोई धर्म नही :

योग दर्शन या योग को कोई धर्म नही है इसको किसी भी देश, किसी भी धर्म के लोग कर सकते है। ये सोचना कि योग किसी धर्म विशेष कि सम्पत्ति है ये सरासर गलत है। योग तो एक तकनीक है जिसके जरीये हम अपने आप को स्वस्थ रखने की इच्छा रखते है। और मैं ये बात जरूरी कहूँगा कि और ये वैज्ञ‍ानिको द्वारा सिद्ध भी किया जा चुका है कि जिम करने की अपेक्षा जो लोग रोजाना 5 मिनट योग करते है वो अधिक स्वस्थ रहते है।

याेग सभी के लिये :

योग सभी के लिये है मतलब के इसको सभी प्रकार के मनुष्य कर सकते है चाहे वो पुरूष हो, स्त्री हो या बच्चे हो। सही तरीके से किया हुआ योग किसी को नुकसान नही पहूँचा सकता । योग हमारे लिए कभी भी पराया नहीं रहा है। हम योग तब से कर रहे हैं जब से हम शिशु थे चाहे वह ‘बिल्ली खिचाव’ आसन हो जो मेरुदंड बनता हो या ‘पवन मुक्त’ आसन  जो पाचन को बढ़ावा देता है। आप देखेंगे कि शिशु दिन भर में कोई न कोई आसन कर रहा होता है। विभिन्न लोगों के लिए योग के विभिन्न रूप हो सकते हैं । हम दृढ़ संकल्पित हैं कि हम आपको अपनी योग – जीवन की राह को खोजने में सहायक होंगे |

मानसिक विकारों को रखता है दूर ।

योग को सबसे महत्वपुर्ण कार्य यह है कि वह दिन प्रतिदिन होने वाले हमारे मानसिक विकारों को दूर रखता है। आज के समय में नौकरी करने में बुहत सी समस्यायें आती रहती है जिसका हमारे शरीर, मष्तिक एवं हमारे परिवार पर भी प्रतिकुल प्रभाव पड़ता है। योग हमें इन सभी विकारों को दूरे रखने में सहायता करता है। योग का एक अर्थ यह भी हो सकता है कि आत्मा में परमात्मा का मिलन। जब हम योग कर सकते होते है तो हमारी इन्द्रीयॉं सगठिंत होती है तथा हमारा ध्यान एकग्रचित होता है एवं हमें एक आधात्मिक शाक्ति के दर्शन होते है जो पूरे दिन हमारे साथ रहती है । तथा हमारा शरीर भी एक आधात्मिक ऊर्जा से सचंरित रहता है।
विश्व विख्‍यात योग गुरू बाबा रामदेव कहते है कि
आपको ईश्वर को जानना है, सत्य को जानना है, सिद्धियाँ प्राप्त करना हैं या कि सिर्फ स्वस्थ रहना है, तो पतंजलि कहते हैं कि शुरुआत शरीर के तल से ही करना होगी। शरीर को बदलो मन बदलेगा। मन बदलेगा तो बुद्धि बदलेगी।
अंतत : सर्वप्रथम आप अपनी इंद्रियों को बलिष्ठ बनाओ। शरीर को आकर्षक बनाओ। और इस मन को स्वयं का गुलाम बनाओ। और यह सब कुछ करना बहुत सरल है।
आशा करते है कि हमारी ये कोशिश आपको पंसद आयी होगी तथा आपके ज्ञान में वृद्धि हुई होगी। अगर आपके कुछ सुझाव हो तो हमें अवश्य लिखें। हम उन सुझावों को निश्चित तौर पर प्राथमिकता देगे ।

Keep ears intact, then read 7 Tips (कान रखना है सलामत, तो पढ़ें यह 7 टिप्स)

1 कान की सफाई का विशेष ध्यान रखें और इनमें किसी प्रकार से बैक्टीरिया को पनपने का मौका न दें। इसके लिए कान में तेल डालना या सर्टि‍फाइट ईयर ड्रॉप का प्रयोग करना सही होगा। इस प्रकार आप अपने कानों में जमा होने वाले मैल को आसानी से बाहर निकाल सकते हैं।

2 कान को खुजाने या साफ करने के लिए कभी भी किसी नुकीली वस्तु का प्रयोग बिल्कुल न करें। यह कान के अंदरूनी हिस्से को क्षतिग्रस्त कर सकता है या फिर कान का पर्दा भी फट सकता है। रूई का बना ईयर बड इस्तेमाल कर रहे हैं तो उसमें नमी होना जरूरी है।
 
3 कान की सफाई के लिए हमेशा नहाने के बाद वाला समय ही सही होता है। इस समय आपके कानों में नमी बनी रहती है जिसे कान का मैल आसानी से साफ हे जाता है। सप्ताह में एक बार नहाने के बाद कान की सफाई जरूर करें।

 यदि आप संगीत सुनने का शौक रखते हैं और अक्सर इसे सुनने के लिए ईयर फोन का प्रयोग करने हैं, तो ध्यान रखें कि 2 घंटे से अधि‍क समय तक तेज आवाज को न सुनें। यह आपके कानों को क्षति पहुंचा सकता है।
 
  अपना ईयर फोन किसी और को प्रयोग न करने दें और ना ही किसी और का ईयर फोन खुद इस्तेमाल करें। यह आपके कानों में बैक्टीरियल इंफेक्शन या अन्य समस्या की रिस्क को कम करेगा।

 धूम्रपान - अत्यधि‍क धूम्रपान करना आपकी सुनने की क्षमता को कम कर सकता है। इससे बचने के लिए बेहतर होगा कि आप धूम्रपान की आदत कम कर दें या छोड़ ही दें।


7 अगर आप तैरने का शौक रखते हैं तो हर बार तैरने के बाद अपने कानों को ठीक तरीके से पोंछें और साफ करें। कानों में गीलापन बने रहने पर बैक्टीरिया पनपने का खतरा अधि‍क होता है जो सुनने की क्षमता कम कर सकता है।


सफेद बालों को काला करेंगे यह 5 उपाय

1 ब्लैक कॉफी - ब्लैक कॉफी का इसतेमाल आप बालों को काला करने के लिए कर सकते हैं। यह बगैर किसी साइड इफेक्ट के सफेद बालों से निजात दिलाएगा। इसके लिए ब्लैक कॉफी को पूरे बालों में लगाएं और कुछ समय तक रखने के बाद बाल धो लें। लगातार ऐसा करते रहने से आपके बाल प्राकृतिक तरीके से काले होंगे।

2 आंवला - बालों को काला करने के लिए आंवले का प्रयोग पुराने जमाने से किया जाता है। इसके लिए आंवले को पानी में उबालकर उसका पेस्ट बना लें और बालों की जड़ों में लगाएं। इस उपाय को महीने में कम से कम 3 बार करें। कुछ ही समय में आप पाएंगे काले और खूबसूरत बाल।

3 ओट्स - ओट्स का प्रयोग भले ही खाने के लिए किया जाता हो, लेकिन इसमें मौजूद बायोटिन आपके बालों को काला करने में मददगार हो सकता है। इतना ही नहीं यह बालों में डैंड्रफ को भी खत्म करने में सहायक है। इसके लिए आप ओट्स को भि‍गोकर या उबालकर हेयर मास्क के रूप में प्रयोग करें

4 चाय पत्त‍ी - चाय पत्त‍ी को उबालकर इस पानी से बालों को धोना सफेद बालों को धीरे-धीरे काला करने में मददगार है। यह तरीका आपके सफेद बालों को काला तो करेगा ही, बालों में प्राकृतिक चमक पैदा करने के साथ ही उन्हें खूबसूरत बनाने में भी कारगर साबित होगा।
 



5 मेहंदी - बालों में मेहंदी का इस्तेमाल प्राकृतिक कलर का काम करता है। बालों में कालापन लाने के लिए आप इसमें त्रिफला, शि‍काकाई, आंवला, चाय या ब्लैक कॉफी का प्रयोग भी कर सकते हैं। यदि इससे आप बालों में रूखापन महसूस करते हैं, तो मेहंदी को पानी की जगह दही से घोल लीजिए।

एक नास्तिक की भक्ति

हरिराम नामक आदमी शहर के एक छोटी सी गली में रहता था। वह एक मेडिकल दुकान का मालिक था।
सारी दवाइयों की उसे अच्छी जानकारी थी,
दस साल का अनुभव होने के कारण उसे अच्छी तरह पता था कि कौन सी दवाई कहाँ रखी है।
वह इस पेशे को बड़े ही शौक से बहुत ही निष्ठा से करता था।
दिन-ब-दिन उसके दुकान में सदैव भीड़ लगी रहती थी,
वह ग्राहकों को वांछित दवाइयों को सावधानी और इत्मीनान होकर देता था।
पर उसे भगवान पर कोई भरोसा नहीं था वह एक नास्तिक था,
भगवान के नाम से ही वह चिढ़ने लगता था।
घरवाले उसे बहुत समझाते पर वह उनकी एक न सुनता था,
खाली वक्त मिलने पर वह अपने दोस्तों के संग मिलकर घर या दुकान में ताश खेलता था।
एक दिन उसके दोस्त उसका हालचाल पूछने दुकान में आए और अचानक बहुत जोर से बारिश होने लगी,बारिश की वजह से दुकान में भी कोई नहीं था।
बस फिर क्या, सब दोस्त मिलकर ताश खेलने लगे।
तभी एक छोटा लड़का उसके दूकान में दवाई लेने पर्चा लेकर आया। उसका पूरा शरीर भीगा था।
हरिराम ताश खेलने में इतना मशगूल था कि बारिश में आए हुए उस लड़के पर उसकी नजर नहीं पड़ी।
ठंड़ से ठिठुरते हुए उस लड़के ने दवाई का पर्चा बढ़ाते हुए कहा- "साहब जी मुझे ये दवाइयाँ चाहिए, मेरी माँ बहुत बीमार है, उनको बचा लीजिए. बाहर और सब दुकानें बारिश की वजह से बंद है। आपके दुकान को देखकर मुझे विश्वास हो गया कि मेरी माँ बच जाएगी। यह दवाई उनके लिए बहुत जरूरी है।
इस बीच लाइट भी चली गई और सब दोस्त जाने लगे।
बारिश भी थोड़ा थम चुकी थी,
उस लड़के की पुकार सुनकर ताश खेलते-खेलते ही हरिराम ने दवाई के उस पर्चे को हाथ में लिया और दवाई लेने को उठा,
ताश के खेल को पूरा न कर पाने के कारण अनमने से अपने अनुभव से अंधेरे में ही दवाई की उस शीशी को झट से निकाल कर उसने लड़के को दे दिया।
उस लड़के ने दवाई का दाम पूछा और उचित दाम देकर बाकी के पैसे भी अपनी जेब में रख लिया।
लड़का खुशी-खुशी दवाई की शीशी लेकर चला गया। वह आज दूकान को जल्दी बंद करने की सोच रहा था।
थोड़ी देर बाद लाइट आ गई और वह यह देखकर दंग रह गया कि उसने दवाई की शीशी समझकर उस
लड़के को दिया था, वह चूहे मारने वाली जहरीली दवा है,
जिसे उसके किसी ग्राहक ने थोड़ी ही देर पहले लौटाया था,
और ताश खेलने की धुन में उसने अन्य दवाइयों के बीच यह सोच कर रख दिया था कि ताश की बाजी के बाद फिर उसे अपनी जगह वापस रख देगा।
अब उसका दिल जोर-जोर से धड़कने लगा।
उसकी दस साल की नेकी पर मानो जैसे ग्रहण लग गया। उस लड़के बारे में वह सोच कर तड़पने लगा। सोचा यदि यह दवाई उसने अपनी बीमार माँ को देगा, तो वह अवश्य मर जाएगी।
लड़का भी बहुत छोटा होने के कारण उस दवाई को तो पढ़ना भी नहीं जानता होगा। एक पल वह अपनी इस भूल को कोसने लगा और ताश खेलने की अपनी आदत को छोड़ने का निश्चय कर लिया
पर यह बात तो बाद के बाद देखा जाएगी।
अब क्या किया जाए ?
उस लड़के का पता ठिकाना भी तो वह नहीं जानता।
कैसे उस बीमार माँ को बचाया जाए?
सच कितना विश्वास था उस लड़के की आंखों में।
हरिराम को कुछ सूझ नहीं रहा था।
घर जाने की उसकी इच्छा अब ठंडी पड़ गई। दुविधा और बेचैनी उसे घेरे हुए था। घबराहट में वह इधर-उधर देखने लगा।
पहली बार उसकी दृष्टि दीवार के उस कोने में पड़ी, जहाँ उसके पिता ने जिद्द करके भगवान श्रीकृष्ण की तस्वीर दुकान के उदघाटन के वक्त लगाई थी,
पिता से हुई बहस में एक दिन उन्होंने हरिराम से भगवान को कम से कम एक शक्ति के रूप मानने और पूजने की मिन्नत की थी।
उन्होंने कहा था कि भगवान की भक्ति में बड़ी शक्ति होती है, वह हर जगह व्याप्त है और हमें सदैव अच्छे कार्य करने की प्रेरणा देता है।
हरिराम को यह सारी बात याद आने लगी। आज उसने इस अद्भुत शक्ति को आज़माना चाहा।
उसने कई बार अपने पिता को भगवान की तस्वीर के सामने कर जोड़कर, आंखें बंद करते हुए पूजते देखा था।
उसने भी आज पहली बार कमरे के कोने में रखी उस धूल भरे कृष्ण की तस्वीर को देखा और आंखें बंद कर दोनों हाथों को जोड़कर वहीं खड़ा हो गया।
थोड़ी देर बाद वह छोटा लड़का फिर दुकान में आया।
हरिराम को पसीने छूटने लगे।
वह बहुत अधीर हो उठा।
पसीना पोंछते हुए उसने कहा- क्या बात है बेटा तुम्हें क्या चाहिए?
लड़के की आंखों से पानी छलकने लगा। उसने रुकते-रुकते कहा- बाबूजी...बाबूजी माँ को बचाने के लिए मैं दवाई की शीशी लिए भागे जा रहा था, घर के करीब पहुँच भी गया था, बारिश की वजह से ऑंगन में पानी भरा था और मैं फिसल गया। दवाई की शीशी गिर कर टूट गई।
क्या आप मुझे वही दवाई की दूसरी शीशी दे सकते हैं बाबूजी?
लड़के ने उदास होकर पूछा।
हाँ! हाँ ! क्यों नहीं?
हरिराम ने राहत की साँस लेते हुए कहा। लो, यह दवाई!
पर उस लड़के ने दवाई की शीशी लेते हुए कहा,
पर मेरे पास तो पैसे नहीं है,
उस लड़के ने हिचकिचाते हुए बड़े भोलेपन से कहा।
हरिराम को उस बिचारे पर दया आई।
कोई बात नहीं- तुम यह दवाई ले जाओ और अपनी माँ को बचाओ।
जाओ जल्दी करो, और हाँ अब की बार ज़रा संभल के जाना।
लड़का, अच्छा बाबूजी कहता हुआ खुशी से चल पड़ा।
अब हरिराम की जान में जान आई।
भगवान को धन्यवाद देता हुआ अपने हाथों से उस धूल भरे तस्वीर को लेकर अपनी धोती से पोंछने लगा और अपने सीने से लगा लिया।
अपने भीतर हुए इस परिवर्तन को वह पहले अपने घरवालों को सुनाना चाहता था।
जल्दी से दुकान बंद करके वह घर को रवाना हुआ।
उसकी नास्तिकता की घोर अंधेरी रात भी अब बीत गई थी और अगले दिन की नई सुबह एक नए हरिराम की प्रतीक्षा कर रही थी।

Saturday, 20 February 2016

क्यों जाना पड़ा था अर्जुन को अकेले ही 12 वर्ष वनवास ??????

महाभारत की कथा में आता है की अर्जुन को एक बार एक नियम तोड़ने के कारण अकेले ही 12 वर्ष वनवास जाना पड़ता है। आइए जानते है आखिर क्या था वो नियम और क्यों तोडा था अर्जुन ने वो नियम?
Mahabharat - Arjun
अज्ञातवास के दौरान पांडवों का विवाह द्रोपदी से हो जाता है।  अज्ञातवास समाप्त होने के बाद वो सब वापस इन्द्रप्रस्थ लौट आते हैं। इन्द्रप्रस्थ में राज्य पाकर धर्मराज युधिष्ठिर अपने भाइयों और द्रोपदी के साथ सुख पूर्वक रहने लगे। एक दिन की बात है जब सभी पाण्डव राज्यसभा में बैठे थे तभी नारद मुनि वहां पहुंचे। पांडवो ने नारद मुनि का आदर सत्कार किया, वहां द्रोपदी भी आई और नारद मुनि का आर्शीवाद लेकर चली गई। द्रोपदी के जाने के पश्चात नारद  ने पाण्डवों से कहा की पाण्डवों आप पांच भाइयों के बीच द्रोपदी मात्र एक पत्नी है, इसलिए तुम लोगों को ऐसा नियम बना लेना चाहिए ताकि आपस में कोई झगड़ा ना हो। क्योंकि एक स्त्री को लेकर भाइयों में झगडे मौत का कारण भी बन जाते है। ऐसा कहकर नारद मुनि उन्हें एक कथा सुनाई –
प्राचीन समय की बात है। सुन्द और उपसुन्द दो असुर भाई थे। दोनों के बारे में ऐसा कहा जाता है दोनों दो जिस्म एक जान हैं। उन्होंने त्रिलोक जीतने की इच्छा से विधिपूर्वक दीक्षा ग्रहण करके तपस्या प्रारंभ की। कठोर तप के बाद ब्रह्मा जी प्रकट हुए। दोनों भाईयों ने अमर होने का वर मांगा। तब ब्रह्मा कहा वह अधिकार तो सिर्फ देवताओं को है। तुम कुछ और मांग लो। तब दोनों ने कहा कि हम दोनों को ऐसा वर दें कि हम सिर्फ एक- दुसरे के द्वारा मारे जाने पर ही मरें। ब्रह्रा जी ने दोनों को वरदान दे दिया। दोनों भाईयों ने वरदान पाने के बाद तीनों लोको में कोहराम मचा दिया। सभी देवता परेशान होकर ब्रह्मा की शरण में गए। तब ब्रह्मा जी ने विश्वकर्मा से एक ऐसी सुन्दर स्त्री बनाने के लिए कहा जिसे देखकर हर प्राणी मोहित हो जाए। उसके बाद एक दिन दोनों भाई एक पर्वत पर आमोद-प्रमोद कर रहे थे। तभी वहां तिलोतमा (विश्वकर्मा की सुन्दर रचना) कनेर के फूल तोडऩे लगी। दोनों भाई उस पर मोहित हो गए। दोनों में उसके कारण युद्ध हुआ। सुन्द और उपसुन्द दोनों मारे गए।
तब कहानी सुनाने के बाद नारद बोले: इसलिए मैं आप लोगों से यह बात कह रहा हूं। तब पाण्डवों ने उनकी प्रेरणा से यह प्रतिज्ञा की एक नियमित समय तक हर भाई द्रोपदी के पास रहेगा। एकान्त में यदि कोई एक भाई दूसरे भाई को देख लेगा तो उसे बारह वर्ष के लिए वनवास होगा।
पाण्डव द्रोपदी के पास नियमानुसार रहते। एक दिन की बात है लुटेरो ने किसी ब्राह्मण की गाय लुट ली और उन्हे लेकर भागने लगे। ब्राह्मण पाण्डवों के पास आया और अपना करूण रूदन करने लगा। ब्राह्मण ने कहा कि पाण्डव तुम्हारे राज्य में मेरी गाय छीन ली गई है। अगर तुम अपनी प्रजा की रक्षा का प्रबंध नहीं कर सकते तो तुम नि:संदेह पापी हो। लेकिन पांडवो के सामने अड़चन यह थी कि जिस कमरे में राजा युधिष्ठिर द्रोपदी के साथ बैठे हुए थे। उसी कमरे में उनके अस्त्र-शस्त्र थे। एक ओर कौटुम्बिक नियम और दुसरी तरफ ब्राह्मण की करूण पुकार। तब अर्जुन ने प्रण किया की मुझे इस ब्राह्मण की रक्षा करनी है चाहे फिर मुझे इसका प्रायश्चित क्यों ना करना पड़े? उसके बाद अर्जुन राजा युधिष्ठिर के घर में नि:संकोच चले गए। राजा से अनुमति लेकर धनुष उठाया और आकर ब्राह्मण से बोले ब्राह्मण देवता थोड़ी देर रूकिए में अभी आपकी गायों को आपको लौटा देता हूं। अर्जुन ने बाणों की बौछार से लुटेरों को मारकर गाय ब्राह्मण को सौंप दी। उसके बाद अर्जुन ने आकर युधिष्ठिर से कहा। मैंने एकांत ग्रह में अकार अपनी प्रतिज्ञा तोड़ दी इसलिए मुझे वनवास पर जाने की आज्ञा दें। युधिष्ठिर ने कहा तुम मुझ से छोटे हो और छोटे भाई यदि अपनी स्त्री के साथ एकांत में बैठा हो तो बड़े भाई के द्वारा उनका एकांत भंग करना अपराध है। लेकिन जब छोटा भाई यदि बड़े भाई का एकांत भंग करे तो वह क्षमा का पात्र है। अर्जुन ने कहा आप ही कहते हैं धर्म पालन में बहानेबाजी नहीं करनी चाहिए। उसके बाद अर्जुन ने वनवास की दीक्षा ली और वनवास को चल पड़े।

Bheema Hindi Story

पाण्डु पुत्र भीम के बारे में माना जाता है की उसमे दस हज़ार हाथियों का बल था जिसके चलते एक बार तो उसने अकेले ही नर्मदा नदी का प्रवाह रोक दिया था। लेकिन भीम में यह दस हज़ार हाथियों का बल आया कैसे इसकी कहानी बड़ी ही रोचक है।

कौरवों का जन्म हस्तिनापुर में हुआ था जबकि पांचो पांडवो का जन्म वन में हुआ था। पांडवों के जन्म के कुछ वर्ष पश्चात पाण्डु का निधन हो गया। पाण्डु की मृत्यु के बाद वन में रहने वाले साधुओं ने विचार किया कि पाण्डु के पुत्रों, अस्थि तथा पत्नी को हस्तिनापुर भेज देना ही उचित है। इस प्रकार समस्त ऋषिगण हस्तिनापुर आए और उन्होंने पाण्डु पुत्रों के जन्म और पाण्डु की मृत्यु के संबंध में पूरी बात भीष्म, धृतराष्ट्र आदि को बताई। भीष्म को जब यह बात पता चली तो उन्होंने कुंती सहित पांचो पांण्डवों को हस्तिनापुर बुला लिया।



हस्तिनापुर में आने के बाद पाण्डवों केवैदिक संस्कार सम्पन्न हुए। पाण्डव तथा कौरव साथ ही खेलने लगे। दौडऩे में, निशाना लगाने तथा कुश्ती आदि सभी खेलों में भीम सभी धृतराष्ट्र पुत्रों को हरा देते थे। भीमसेन कौरवों से होड़ के कारण ही ऐसा करते थे लेकिन उनके मन में कोई वैर-भाव नहीं था। परंतु दुर्योधन के मन में भीमसेन के प्रति दुर्भावना पैदा हो गई। तब उसने उचित अवसर मिलते ही भीम को मारने का विचार किया।

दुर्योधन ने एक बार खेलने के लिए गंगा तट पर शिविर लगवाया। उस स्थान का नाम रखा उदकक्रीडन। वहां खाने-पीने इत्यादि सभी सुविधाएं भी थीं। दुर्योधन ने पाण्डवों को भी वहां बुलाया। एक दिन मौका पाकर दुर्योधन ने भीम के भोजन में विष मिला दिया। विष के असर से जब भीम अचेत हो गए तो दुर्योधन ने दु:शासन के साथ मिलकर उसे गंगा में डाल दिया। भीम इसी अवस्था में नागलोक पहुंच गए। वहां सांपों ने भीम को खूब डंसा जिसके प्रभाव से विष का असर कम हो गया। जब भीम को होश आया तो वे सर्पों को मारने लगे। सभी सर्प डरकर नागराज वासुकि के पास गए और पूरी बात बताई।

तब वासुकि स्वयं भीमसेन के पास गए। उनके साथ आर्यक नाग ने भीम को पहचान लिया। आर्यक नाग भीम के नाना का नाना था। वह भीम से बड़े प्रेम से मिले। तब आर्यक ने वासुकि से कहा कि भीम को उन कुण्डों का रस पीने की आज्ञा दी जाए जिनमें हजारों हाथियों का बल है। वासुकि ने इसकी स्वीकृति दे दी। तब भीम आठ कुण्ड पीकर एक दिव्य शय्या पर सो गए।

जब दुर्योधन ने भीम को विष देकर गंगा में फेंक दिया तो उसे बड़ा हर्ष हुआ। शिविर के समाप्त होने पर सभी कौरव व पाण्डव भीम के बिना ही हस्तिनापुर के लिए रवाना हो गए। पाण्डवों ने सोचा कि भीम आगे चले गए होंगे। जब सभी हस्तिनापुर पहुंचे तो युधिष्ठिर ने माता कुंती से भीम के बारे में पूछा। तब कुंती ने भीम के न लौटने की बात कही। सारी बात जानकर कुंती व्याकुल हो गई तब उन्होंने विदुर को बुलाया और भीम को ढूंढने के लिए कहा। तब विदुर ने उन्हें सांत्वना दी और सैनिकों को भीम को ढूंढने के लिए भेजा।

उधर नागलोक में भीम आठवें दिन रस पच जाने पर जागे। तब नागों ने भीम को गंगा के बाहर छोड़ दिया। जब भीम सही-सलामत हस्तिनापुर पहुंचे तो सभी को बड़ा संतोष हुआ। तब भीम ने माता कुंती व अपने भाइयों के सामने दुर्योधन द्वारा विष देकर गंगा में फेंकने तथा नागलोक में क्या-क्या हुआ, यह सब बताया। युधिष्ठिर ने भीम से यह बात किसी और को नहीं बताने के लिए कहा।

सावित्री सत्यवान कथा

महाभारत एक ऐसा ग्रन्थ है जिसमे अनेकों पौराणिक, धार्मिक कथा-कहानियों का संग्रह है। ऐसी ही एक कहानी है सावित्री और सत्यवान की, जिसका सर्वप्रथम वर्णन महाभारत के वनपर्व में मिलता है।  जब वन में गए युधिष्ठर, मार्कण्डेय मुनि से पूछते है की क्या कोई अन्य नारी भी द्रोपदी की जैसे पतिव्रता हुई है जो पैदा तो राजकुल में हुई है पर पतिव्रत धर्म निभाने के लिए जंगल-जंगल भटक रही है। तब मार्कण्डेय मुनि, युधिष्ठर को कहते है की पहले भी सावित्री नाम की एक नारी इससे भी कठिन पतिव्रत धर्म का पालन कर चुकी है और मुनि, युधिष्ठर को यह कथा सुनाते है।
satyawan sawitri katha in Hindi
मद्रदेश के अश्वपतिनाम का एक बड़ा ही धार्मिक राजा था। जिसकी पुत्री का नाम सावित्री था। सावित्री जब विवाह योग्य हो गई। तब महाराज उसके विवाह के लिए बहुत चिंतित थे। उन्होंने सावित्री से कहा बेटी अब तू विवाह के योग्य हो गयी है। इसलिए स्वयं ही अपने योग्य वर चुनकर उससे विवाह कर लें। धर्मशास्त्र में ऐसी आज्ञा है कि विवाह योग्य हो जाने पर जो पिता कन्यादान नहीं करता, वह पिता निंदनीय है। ऋतुकाल में जो स्त्री से समागम नहीं करता वह पति निंदा का पात्र है। पति के मर जाने पर उस विधवा माता का जो पालन नहीं करता । वह पुत्र निंदनीय है।
तब सावित्री शीघ्र ही वर की खोज करने के लिए चल दी। वह राजर्षियों के रमणीय तपोवन में गई। कुछ दिन तक वह वर की तलाश में घुमती रही। एक दिन मद्रराज अश्वपति अपनी सभा में बैठे हुए देवर्षि बातें कर रहे थे। उसी समय मंत्रियों के सहित सावित्री समस्त वापस लौटी। तब राजा की सभा में नारदजी भी उपस्थित थे। नारदजी ने जब राजकुमारी के बारे में राजा से पूछा तो राजा ने कहा कि वे अपने वर की तलाश में गई हैं। जब राजकुमारी दरबार पहुंची तो और राजा ने उनसे वर के चुनाव के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि उन्होंने शाल्वदेश के राजा के पुत्र जो जंगल में पले-बढ़े हैं उन्हें पति रूप में स्वीकार किया है।
उनका नाम सत्यवान है। तब नारदमुनि बोले राजेन्द्र ये तो बहुत खेद की बात है क्योंकि इस वर में एक दोष है तब राजा ने पूछा वो क्या तो उन्होंने कहा जो वर सावित्री ने चुना है उसकी आयु कम है। वह सिर्फ एक वर्ष के बाद मरने वाला है। उसके बाद वह अपना देहत्याग देगा। तब सावित्री ने कहा पिताजी कन्यादान एकबार ही किया जाता है जिसे मैंने एक बार वरण कर लिया है। मैं उसी से विवाह करूंगी आप उसे कन्यादान कर दें। उसके बाद सावित्री के द्वारा चुने हुए वर सत्यवान से धुमधाम और पूरे विधि-विधान से विवाह करवा दिया गया।
सत्यवान व सावित्री के विवाह को बहुत समय बीत गया। जिस दिन सत्यवान मरने वाला था वह करीब था। सावित्री एक-एक दिन गिनती रहती थी। उसके दिल में नारदजी का वचन सदा ही बना रहता था। जब उसने देखा कि अब इन्हें चौथे दिन मरना है। उसने तीन दिन व्रत धारण किया। जब सत्यवान जंगल में लकड़ी काटने गया तो सावित्री ने उससे कहा कि मैं भी साथ चलुंगी। तब सत्यवान ने सावित्री से कहा तुम व्रत के कारण कमजोर हो रही हो। जंगल का रास्ता बहुत कठिन और परेशानियों भरा है। इसलिए आप यहीं रहें। लेकिन सावित्री नहीं मानी उसने जिद पकड़ ली और सत्यवान के साथ जंगल की ओर चल दी।
satyawan sawitri katha in Hindi
सत्यवान जब लकड़ी काटने लगा तो अचानक उसकी तबीयत बिगडऩे लगी। वह सावित्री से बोला मैं स्वस्थ महसूस नही कर रहा हूं सावित्री मुझमें यहा बैठने की भी हिम्मत नहीं है। तब सावित्री ने सत्यवान का सिर अपनी गोद में रख लिया। फिर वह नारदजी की बात याद करके दिन व समय का विचार करने लगी। इतने में ही उसे वहां एक बहुत भयानक पुरुष दिखाई दिया। जिसके हाथ में पाश था। वे यमराज थे। उन्होंने सावित्री से कहा तू पतिव्रता स्त्री है। इसलिए मैं तुझसे संभाषण कर लूंगा। सावित्री ने कहा आप कौन है तब यमराज ने कहा मैं यमराज हूं। इसके बाद यमराज सत्यवान के शरीर में से प्राण निकालकर उसे पाश में बांधकर दक्षिण दिशा की ओर चल दिए। सावित्री बोली मेरे पतिदेव को जहां भी ले जाया जाएगा मैं भी वहां जाऊंगी। तब यमराज ने उसे समझाते हुए कहा मैं उसके प्राण नहीं लौटा सकता तू मनचाहा वर मांग ले।
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तब सावित्री ने वर में अपने श्वसुर के आंखे मांग ली। यमराज ने कहा तथास्तु लेकिन वह फिर उनके पीछे चलने लगी। तब यमराज ने उसे फिर समझाया और वर मांगने को कहा उसने दूसरा वर मांगा कि मेरे श्वसुर को उनका राज्य वापस मिल जाए। उसके बाद तीसरा वर मांगा मेरे पिता जिन्हें कोई पुत्र नहीं हैं उन्हें सौ पुत्र हों। यमराज ने फिर कहा सावित्री तुम वापस लौट जाओ चाहो तो मुझसे कोई और वर मांग लो। तब सावित्री ने कहा मुझे सत्यवान से सौ यशस्वी पुत्र हों। यमराज ने कहा तथास्तु। यमराज फिर सत्यवान के प्राणों को अपने पाश में जकड़े आगे बढऩे लगे। सावित्री ने फिर भी हार नहीं मानी तब यमराज ने कहा तुम वापस लौट जाओ तो सावित्री ने कहा मैं कैसे वापस लौट जाऊं । आपने ही मुझे सत्यवान से सौ यशस्वी पुत्र उत्पन्न करने का आर्शीवाद दिया है। तब यमराज ने सत्यवान को पुन: जीवित कर दिया। उसके बाद सावित्री सत्यवान के शव के पास पहुंची और थोड़ी ही देर में सत्यवान के शव में चेतना आ गई 

कब, क्यों और कैसे डूबी द्वारका?????

श्री कृष्ण की नगरी द्वारिका महाभारत युद्ध के 36 वर्ष पश्चात समुद्र में डूब जाती है। द्वारिका के समुद्र में डूबने से पूर्व श्री कृष्ण सहित सारे यदुवंशी भी मारे जाते है।  समस्त यदुवंशियों के मारे जाने और द्वारिका के समुद्र में विलीन होने के पीछे मुख्य रूप से दो घटनाएं जिम्मेदार है।  एक माता गांधारी द्वारा श्री कृष्ण को दिया गया श्राप और दूसरा ऋषियों द्वारा श्री कृष्ण पुत्र सांब को दिया गया श्राप।  आइए इस घटना पर विस्तार से जानते है।
Kab kyoon aur kaise dubi Dwarka?
प्राचीन द्वारका नगरी (डेमो पिक्स)
गांधारी ने दिया था यदुवंश के नाश का श्राप –
महाभारत युद्ध की समाप्ति के बाद जब युधिष्ठर का राजतिलक हो रहा था तब कौरवों की माता गांधारी ने महाभारत युद्ध के लिए श्रीकृष्ण को दोषी ठहराते हुए श्राप दिया की जिस प्रकार कौरवों के वंश का नाश हुआ है ठीक उसी प्रकार यदुवंश का भी नाश होगा।
ऋषियों ने दिया था सांब को श्राप –
महाभारत युद्ध के बाद जब छत्तीसवां वर्ष आरंभ हुआ तो तरह-तरह के अपशकुन होने लगे। एक दिन महर्षि विश्वामित्र, कण्व, देवर्षि नारद आदि द्वारका गए। वहां यादव कुल के कुछ नवयुवकों ने उनके साथ परिहास (मजाक) करने का सोचा। वे श्रीकृष्ण के पुत्र सांब को स्त्री वेष में ऋषियों के पास ले गए और कहा कि ये स्त्री गर्भवती है। इसके गर्भ से क्या उत्पन्न होगा?
ऋषियों ने जब देखा कि ये युवक हमारा अपमान कर रहे हैं तो क्रोधित होकर उन्होंने श्राप दिया कि- श्रीकृष्ण का यह पुत्र वृष्णि और अंधकवंशी पुरुषों का नाश करने के लिए एक लोहे का मूसल उत्पन्न करेगा, जिसके द्वारा तुम जैसे क्रूर और क्रोधी लोग अपने समस्त कुल का संहार करोगे। उस मूसल के प्रभाव से केवल श्रीकृष्ण व बलराम ही बच पाएंगे। श्रीकृष्ण को जब यह बात पता चली तो उन्होंने कहा कि ये बात अवश्य सत्य होगी।
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समुद्र में डूबे हुए द्वारका नगरी के अवशेष
मुनियों के श्राप के प्रभाव से दूसरे दिन ही सांब ने मूसल उत्पन्न किया। जब यह बात राजा उग्रसेन को पता चली तो उन्होंने उस मूसल को चुरा कर समुद्र में डलवा दिया। इसके बाद राजा उग्रसेन व श्रीकृष्ण ने नगर में घोषणा करवा दी कि आज से कोई भी वृष्णि व अंधकवंशी अपने घर में मदिरा तैयार नहीं करेगा। जो भी व्यक्ति छिपकर मदिरा तैयार करेगा, उसे मृत्युदंड दिया जाएगा। घोषणा सुनकर द्वारकावासियों ने मदिरा नहीं बनाने का निश्चय किया।द्वारका में होने लगे थे भयंकर अपशकुन
इसके बाद द्वारका में भयंकर अपशकुन होने लगे। प्रतिदिन आंधी चलने लगी। चूहे इतने बढ़ गए कि मार्गों पर मनुष्यों से ज्यादा दिखाई देने लगे। वे रात में सोए हुए मनुष्यों के बाल और नाखून कुतरकर खा जाया करते थे। सारस उल्लुओं की और बकरे गीदड़ों की आवाज निकालने लगे। गायों के पेट से गधे, कुत्तियों से बिलाव और नेवलियों के गर्भ से चूहे पैदा होने लगे। उस समय यदुवंशियों को पाप करते शर्म नहीं आती थी।
अंधकवंशियों के हाथों मारे गए थे प्रद्युम्न –
जब श्रीकृष्ण ने नगर में होते इन अपशकुनों को देखा तो उन्होंने सोचा कि कौरवों की माता गांधारी का श्राप सत्य होने का समय आ गया है। इन अपशकुनों को देखकर तथा पक्ष के तेरहवें दिन अमावस्या का संयोग जानकर श्रीकृष्ण काल की अवस्था पर विचार करने लगे। उन्होंने देखा कि इस समय वैसा ही योग बन रहा है जैसा महाभारत के युद्ध के समय बना था। गांधारी के श्राप को सत्य करने के उद्देश्य से श्रीकृष्ण ने यदुवंशियों को तीर्थयात्रा करने की आज्ञा दी। श्रीकृष्ण की आज्ञा से सभी राजवंशी समुद्र के तट पर प्रभास तीर्थ आकर निवास करने लगे।
प्रभास तीर्थ में रहते हुए एक दिन जब अंधक व वृष्णि वंशी आपस में बात कर रहे थे। तभी सात्यकि ने आवेश में आकर कृतवर्मा का उपहास और अनादर कर दिया। कृतवर्मा ने भी कुछ ऐसे शब्द कहे कि सात्यकि को क्रोध आ गया और उसने कृतवर्मा का वध कर दिया। यह देख अंधकवंशियों ने सात्यकि को घेर लिया और हमला कर दिया। सात्यकि को अकेला देख श्रीकृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न उसे बचाने दौड़े। सात्यकि और प्रद्युम्न अकेले ही अंधकवंशियों से भिड़ गए। परंतु संख्या में अधिक होने के कारण वे अंधकवंशियों को पराजित नहीं कर पाए और अंत में उनके हाथों मारे गए।
यदुवंशियों के नाश के बाद अर्जुन को बुलवाया था श्रीकृष्ण ने –
अपने पुत्र और सात्यकि की मृत्यु से क्रोधित होकर श्रीकृष्ण ने एक मुट्ठी एरका घास उखाड़ ली। हाथ में आते ही वह घास वज्र के समान भयंकर लोहे का मूसल बन गई। उस मूसल से श्रीकृष्ण सभी का वध करने लगे। जो कोई भी वह घास उखाड़ता वह भयंकर मूसल में बदल जाती (ऐसा ऋषियों के श्राप के कारण हुआ था)। उन मूसलों के एक ही प्रहार से प्राण निकल जाते थे। उस समय काल के प्रभाव से अंधक, भोज, शिनि और वृष्णि वंश के वीर मूसलों से एक-दूसरे का वध करने लगे। यदुवंशी भी आपस में लड़ते हुए मरने लगे।
श्रीकृष्ण के देखते ही देखते सांब, चारुदेष्ण, अनिरुद्ध और गद की मृत्यु हो गई। फिर तो श्रीकृष्ण और भी क्रोधित हो गए और उन्होंने शेष बचे सभी वीरों का संहार कर डाला। अंत में केवल दारुक (श्रीकृष्ण के सारथी) ही शेष बचे थे। श्रीकृष्ण ने दारुक से कहा कि तुम तुरंत हस्तिनापुर जाओ और अर्जुन को पूरी घटना बता कर द्वारका ले आओ। दारुक ने ऐसा ही किया। इसके बाद श्रीकृष्ण बलराम को उसी स्थान पर रहने का कहकर द्वारका लौट आए।
बलरामजी के स्वधाम गमन के बाद ये किया श्रीकृष्ण ने –
द्वारका आकर श्रीकृष्ण ने पूरी घटना अपने पिता वसुदेवजी को बता दी। यदुवंशियों के संहार की बात जान कर उन्हें भी बहुत दुख हुआ। श्रीकृष्ण ने वसुदेवजी से कहा कि आप अर्जुन के आने तक स्त्रियों की रक्षा करें। इस समय बलरामजी वन में मेरी प्रतीक्षा कर रहे हैं, मैं उनसे मिलने जा रहा हूं। जब श्रीकृष्ण ने नगर में स्त्रियों का विलाप सुना तो उन्हें सांत्वना देते हुए कहा कि शीघ्र ही अर्जुन द्वारका आने वाले हैं। वे ही तुम्हारी रक्षा करेंगे। ये कहकर श्रीकृष्ण बलराम से मिलने चल पड़े।
वन में जाकर श्रीकृष्ण ने देखा कि बलरामजी समाधि में लीन हैं। देखते ही देखते उनके मुख से सफेद रंग का बहुत बड़ा सांप निकला और समुद्र की ओर चला गया। उस सांप के हजारों मस्तक थे। समुद्र ने स्वयं प्रकट होकर भगवान शेषनाग का स्वागत किया। बलरामजी द्वारा देह त्यागने के बाद श्रीकृष्ण उस सूने वन में विचार करते हुए घूमने लगे। घूमते-घूमते वे एक स्थान पर बैठ गए और गांधारी द्वारा दिए गए श्राप के बारे में विचार करने लगे। देह त्यागने की इच्छा से श्रीकृष्ण ने अपनी इंद्रियों का संयमित किया और महायोग (समाधि) की अवस्था में पृथ्वी पर लेट गए।
ऐसे त्यागी श्रीकृष्ण ने देह –
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जिस समय भगवान श्रीकृष्ण समाधि में लीन थे, उसी समय जरा नाम का एक शिकारी हिरणों का शिकार करने के उद्देश्य से वहां आ गया। उसने हिरण समझ कर दूर से ही श्रीकृष्ण पर बाण चला दिया। बाण चलाने के बाद जब वह अपना शिकार पकडऩे के लिए आगे बढ़ा तो योग में स्थित भगवान श्रीकृष्ण को देख कर उसे अपनी भूल पर पश्चाताप हुआ। तब श्रीकृष्ण को उसे आश्वासन दिया और अपने परमधाम चले गए। अंतरिक्ष में पहुंचने पर इंद्र, अश्विनीकुमार, रुद्र, आदित्य, वसु, मुनि आदि सभी ने भगवान का स्वागत किया।
इधर दारुक ने हस्तिनापुर जाकर यदुवंशियों के संहार की पूरी घटना पांडवों को बता दी। यह सुनकर पांडवों को बहुत शोक हुआ। अर्जुन तुरंत ही अपने मामा वसुदेव से मिलने के लिए द्वारका चल दिए। अर्जुन जब द्वारका पहुंचे तो वहां का दृश्य देखकर उन्हें बहुत शोक हुआ। श्रीकृष्ण की रानियां उन्हें देखकर रोने लगी। उन्हें रोता देखकर अर्जुन भी रोने लगे और श्रीकृष्ण को याद करने लगे। इसके बाद अर्जुन वसुदेवजी से मिले। अर्जुन को देखकर वसुदेवजी बिलख-बिलख रोने लगे। वसुदेवजी ने अर्जुन को श्रीकृष्ण का संदेश सुनाते हुए कहा कि द्वारका शीघ्र ही समुद्र में डूबने वाली है अत: तुम सभी नगरवासियों को अपने साथ ले जाओ।
अर्जुन अपने साथ ले गए श्रीकृष्ण के परिजनों को –
वसुदेवजी की बात सुनकर अर्जुन ने दारुक से सभी मंत्रियों को बुलाने के लिए कहा। मंत्रियों के आते ही अर्जुन ने कहा कि मैं सभी नगरवासियों को यहां से इंद्रप्रस्थ ले जाऊंगा, क्योंकि शीघ्र ही इस नगर को समुद्र डूबा देगा। अर्जुन ने मंत्रियों से कहा कि आज से सातवे दिन सभी लोग इंद्रप्रस्थ के लिए प्रस्थान करेंगे इसलिए आप शीघ्र ही इसके लिए तैयारियां शुरू कर दें। सभी मंत्री तुरंत अर्जुन की आज्ञा के पालन में जुट गए। अर्जुन ने वह रात श्रीकृष्ण के महल में ही बिताई।
अगली सुबह श्रीकृष्ण के पिता वसुदेवजी ने प्राण त्याग दिए। अर्जुन ने विधि-विधान से उनका अंतिम संस्कार किया। वसुदेवजी की पत्नी देवकी, भद्रा, रोहिणी व मदिरा भी चिता पर बैठकर सती हो गईं। इसके बाद अर्जुन ने प्रभास तीर्थ में मारे गए समस्त यदुवंशियों का भी अंतिम संस्कार किया। सातवे दिन अर्जुन श्रीकृष्ण के परिजनों तथा सभी नगरवासियों को साथ लेकर इंद्रप्रस्थ की ओर चल दिए। उन सभी के जाते ही द्वारका नगरी समुद्र में डूब गई। ये दृश्य देखकर सभी को बड़ा आश्चर्य हुआ

महाभारत – 30 तथ्य



महाभारत हिंदू संस्कृति की एक अमूल्य धरोहर है। शास्त्रों में इसे पांचवा वेद भी कहा गया है। इसके रचयिता महर्षि कृष्णद्वैपायन वेदव्यास हैं। महर्षि वेदव्यास ने इस ग्रंथ के बारे में स्वयं कहा है- यन्नेहास्ति न कुत्रचित्। अर्थात जिस विषय की चर्चा इस ग्रंथ में नहीं की गई है, उसकी चर्चा अन्यत्र कहीं भी उपलब्ध नहीं है। श्रीमद्भागवतगीता जैसा अमूल्य रत्न भी इसी महासागर की देन है। इस ग्रंथ में कुल मिलाकर एक लाख श्लोक है, इसलिए इसे शतसाहस्त्री संहिता भी कहा जाता है।


1- महाभारत ग्रंथ की रचना महर्षि वेदव्यास ने की थी लेकिन इसका लेखन भगवान श्रीगणेश ने किया था। भगवान श्रीगणेश ने इस शर्त पर महाभारत का लेखन किया था कि महर्षि वेदव्यास बिना रुके ही लगातार इस ग्रंथ के श्लोक बोलते रहे। तब महर्षि वेदव्यास ने भी एक शर्त रखी कि मैं भले ही बिना सोचे-समझे बोलूं लेकिन आप किसी भी श्लोक को बिना समझे लिखे नहीं। बीच-बीच में महर्षि वेदव्यास ने कुछ ऐसे श्लोक बोले जिन्हें समझने में श्रीगणेश को थोड़ा समय लगा और इस दौरान महर्षि वेदव्यास अन्य श्लोकों की रचना कर लेते थे।

2- महाभारत ग्रंथ का वाचन सबसे पहले महर्षि वेदव्यास के शिष्य वैशम्पायन ने राजा जनमेजय की सभा में किया था। राजा जनमेजय अभिमन्यु के पौत्र तथा परीक्षित के पुत्र थे। इन्होंने ने ही अपने पिता की मृत्यु का बदला लेने के लिए सर्पयज्ञ करवाया था।

3- भीष्म पितामह के पिता का नाम शांतनु था, उनका पहला विवाह गंगा से हुआ था। पूर्वजन्म में शांतनु राजा महाभिष थे। उन्होंने बड़े-बड़े यज्ञ करके स्वर्ग प्राप्त किया। एक दिन बहुत से देवता और राजर्षि, जिनमें महाभिष भी थे, ब्रह्माजी की सेवा में उपस्थित थे। उसी समय वहां देवी गंगा का आना हुआ। गंगा को देखकर राजा महाभिष मोहित हो गए और एकटक उन्हें देखने लगे। इससे क्रुद्ध होकर ब्रह्मा जी ने महाभिष को श्राप दे दिया। जब महाभिष ने उनसे क्षमा याचना की तब ब्रह्माजी ने कहा- महाभिष तुम मृत्युलोक जाओ, जिस गंगा को तुम देख रहे हो, वह तुम्हारा अप्रिय करेगी और तुम जब उस पर क्रोध करोगे तब इस शाप से मुक्त हो जाओगे।

4- ब्रह्माजी के श्राप के कारण अगले जन्म में महाभिष, राजा प्रतीप के पुत्र शांतनु बने। इनका विवाह देवी गंगा से हुआ। विवाह से पहले गंगा ने शांतनु से यह प्रतिज्ञा करवाई थी कि वे कभी कोई प्रश्न नहीं पूछेंगे। शांतनु ने उनकी यह बात मान ली। राजा शांतनु और गंगा की आठ संतान हुई। पहली सातों संतानों को गंगा ने जन्म लेते ही नदी में प्रवाहित कर दिया। वचनबद्ध होने के कारण राजा शांतनु गंगा से कुछ नहीं पूछ पाए।

5- जब गंगा आंठवी संतान को नदी में प्रवाहित करने जा रही थी तब राजा शांतनु ने क्रोध में आकर उससे इसका कारण पूछा। तब देवी गंगा ने उन्हें पिछले जन्म की पूरी बात बताई और वह शांतनु की आठवी संतान को लेकर अन्यत्र चली गई।

6- धर्म ग्रंथों के अनुसार तैंतीस देवता प्रमुख माने गए हैं। इनमें अष्ट वसु भी हैं। ये ही अष्ट वसु शांतनु व गंगा के पुत्र के रूप में अवतरित हुए क्योंकि इन्हें वशिष्ठ ऋषि ने मनुष्य योनि में जन्म लेने का श्राप दिया था। गंगा ने अपने सात पुत्रों को जन्म लेते ही नदी में बहा कर उन्हें मनुष्य योनि से मुक्त कर दिया था। राजा शांतनु व गंगा का आठवां पुत्र भीष्म के रूप में प्रसिद्ध हुआ।

7- राजा शांतनु का दूसरा विवाह निषाद कन्या सत्यवती से हुआ। शांतनु और सत्यवती के दो पुत्र हुए- चित्रांगद और वित्रिचवीर्य। चित्रांगद बहुत ही वीर और पराक्रमी था। एक युद्ध में उसी के नाम के गंर्धवराज चित्रांगद ने उसका वध कर दिया। चित्रांगद के बाद विचित्रवीर्य को राजा बनाया गया। इनका विवाह काशी की राजकुमारी अंबिका और अंबालिका से हुआ। लेकिन कुछ समय बाद ही वित्रिचवीर्य की मृत्यु हो गई।

8- महाभारत में विदुर यमराज के अवतार थे। यमराज को ऋषि माण्डव्य के श्राप के कारण मनुष्य योनि में जन्म लेना पड़ा। विदुर धर्म शास्त्र और अर्थशास्त्र में बड़े निपुण थे। उन्होंने जीवनभर कुरुवंश के हित के लिए कार्य किया।

9- यदुवंशी राजा शूरसेन की पृथा नामक कन्या व वसुदेव नामक पुत्र था। इस कन्या को राजा शूरसेन अपनी बुआ के संतानहीन लड़के कुंतीभोज को गोद दे दिया था। कुंतीभोज ने इस कन्या का नाम कुंती रखा। कुंती का विवाह राजा पाण्डु से हुआ था।

10- जब कुंती बाल्यावस्था में थी, उस समय उसने ऋषि दुर्वासा की सेवा की थी। सेवा से प्रसन्न होकर ऋषि दुर्वासा ने कुंती को एक मंत्र दिया जिससे वह किसी भी देवता का आह्वान कर उससे पुत्र प्राप्त कर सकती थी। विवाह से पूर्व इस मंत्र की शक्ति देखने के लिए एक दिन कुंती ने सूर्यदेव का आह्वान किया जिसके फलस्वरूप कर्ण का जन्म हुआ।

11- महाराज पाण्डु का दूसरा विवाह मद्रदेश की राजकुमारी माद्री से हुआ। एक बार राजा पाण्डु शिकार खेल रहे थे। उस समय किंदम नामक ऋषि अपनी पत्नी के साथ हिरन के रूप में सहवास कर रहे थे। उसी अवस्था में राजा पाण्डु ने उन पर बाण चला दिए। मरने से पहले ऋषि किंदम ने राजा पाण्डु को श्राप दिया कि जब भी वे अपनी पत्नी के साथ सहवास करेंगे तो उसी अवस्था में उनकी मृत्यु हो जाएगी।

12- ऋषि किंदम के श्राप से दु:खी होकर राजा पाण्डु ने राज-पाट का त्याग कर दिया और वनवासी हो गए। कुंती और माद्री भी अपने पति के साथ ही वन में रहने लगीं। जब पाण्डु को ऋषि दुर्वासा द्वारा कुंती को दिए गए मंत्र के बारे में पता चला तो उन्होंने कुंती से धर्मराज का आवाह्न करने के लिए कहा जिसके फलस्वरूप धर्मराज युधिष्ठिर का जन्म हुआ। इसी प्रकार वायुदेव के अंश से भीम और देवराज इंद्र के अंश से अर्जुन का जन्म हुआ। कुंती ने यह मंत्र माद्री को बताया। तब माद्री ने अश्विनकुमारों का आवाह्न किया, जिसके फलस्वरूप नकुल व सहदेव का जन्म हुआ।

13- धृतराष्ट्र की पत्नी गांधारी को महर्षि वेदव्यास ने सौ पुत्रों की माता होने का वरदान दिया था। समय आने पर गांधारी को गर्भ ठहरा लेकिन वह दो वर्ष तक पेट में रुका रहा। घबराकर गांधारी ने गर्भ गिरा दिया। उसके पेट से लोहे के गोले के समान एक मांस पिंड निकला। तब महर्षि वेदव्यास वहां पहुंचे और उन्होंने कहा कि तुम सौ कुण्ड बनवाकर उन्हें घी से भर दो और उनकी रक्षा के लिए प्रबंध करो। इसके बाद महर्षि वेदव्यास ने गांधारी को उस मांस पिण्ड पर ठंडा जल छिड़कने के लिए कहा। जल छिड़कते ही उस मांस पिण्ड के 101 टुकड़े हो गए।

14- महर्षि की आज्ञानुसार गांधारी ने उन सभी मांस पिंडों को घी से भरे कुंडों में रख दिया। फिर महर्षि ने कहा कि इन कुण्डों को दो साल के बाद खोलना। समय आने पर उन कुण्डों से पहले दुर्योधन का जन्म हुआ और उसके बाद अन्य गांधारी पुत्रों का। जिस दिन दुर्योधन का जन्म हुआ था उसी दिन भीम का भी जन्म हुआ था।

15- जन्म लेते ही दुर्योधन गधे की तरह रेंकने लगा। उसका शब्द सुनकर गधे, गीदड़, गिद्ध और कौए भी चिल्लाने लगे, आंधी चलने लगी, कई स्थानों पर आग लग गई। यह देखकर विदुर ने राजा धृतराष्ट्र से कहा कि आपका यह पुत्र निश्चित ही कुल का नाश करने वाला होगा अत: आप इस पुत्र का त्याग कर दीजिए लेकिन पुत्र स्नेह के कारण धृतराष्ट्र ऐसा नहीं कर पाए।

16- गांधारी का सबसे बड़ा पुत्र था – दुर्योधन। उसके बाद दु:शासन, दुस्सह, दुश्शल, जलसंध, सम, सह, विंद, अनुविंद, दुद्र्धर्ष, सुबाहु, दुष्प्रधर्षण, दुर्मुर्षण, दुर्मुख, दुष्कर्ण, कर्ण, विविंशति, विकर्ण, शल, सत्व,

17- सुलोचन, चित्र, उपचित्र, चित्राक्ष, चारुचित्र, शरासन, दुर्मुद, दुर्विगाह, विवित्सु, विकटानन, ऊर्णनाभ, सुनाभ, नंद, उपनंद, चित्रबाण, चित्रवर्मा, सुवर्मा, दुर्विमोचन, आयोबाहु, महाबाहु

18- चित्रांग, चित्रकुंडल, भीमवेग, भीमबल, बलाकी, बलवद्र्धन, उग्रायुध, सुषेण, कुण्डधार, महोदर, चित्रायुध, निषंगी, पाशी, वृंदारक, दृढ़वर्मा, दृढ़क्षत्र, सोमकीर्ति, अनूदर, दृढ़संध, जरासंध

19- सत्यसंध, सद:सुवाक, उग्रश्रवा, उग्रसेन, सेनानी, दुष्पराजय, अपराजित, कुण्डशायी, विशालाक्ष, दुराधर, दृढ़हस्त, सुहस्त, बातवेग, सुवर्चा, आदित्यकेतु, बह्वाशी, नागदत्त, अग्रयायी, कवची, क्रथन

20- कुण्डी, उग्र, भीमरथ, वीरबाहु, अलोलुप, अभय, रौद्रकर्मा, दृढऱथाश्रय, अनाधृष्य, कुण्डभेदी, विरावी, प्रमथ, प्रमाथी, दीर्घरोमा, दीर्घबाहु, महाबाहु, व्यूढोरस्क, कनकध्वज, कुण्डाशी, और विरजा। 100 पुत्रों के अलावा गांधारी की एक पुत्री भी थी जिसका नाम दुुश्शला था, इसका विवाह राजा जयद्रथ के साथ हुआ था।

21- कौरवों के अतिरिक्त धृतराष्ट्र का एक पुत्र और था, उसका नाम युयुत्सु था। जिस समय गांधारी गर्भवती थी और धृतराष्ट्र की सेवा करने में असमर्थ थी। उन दिनों एक वैश्य कन्या ने धृतराष्ट्र की सेवा की, उसके गर्भ से उसी साल युयुस्तु नामक पुत्र हुआ था। वह बहुत ही यशस्वी और विचारशील था।

22- एक बार दुर्योधन ने धोखे से भीम को विष खिलाकर गंगा नदी में फेंक दिया। बेहोशी की अवस्था में भीम बहते हुए नागलोक पहुंच गए। वहां विषैले नागों ने भीम को खूब डंसा, जिससे भीम के शरीर का जहर कम हो गया और वे होश में आ गए और नागों को पटक-पटक कर मारने लगे। यह सुनकर नागराज वासुकि स्वयं भीम के पास आए। उनके साथी आर्यक नाग में भीमसेन को पहचान लिया। आर्यक नाग भीमसेन के नाना का नाना था। आर्यक नाग ने प्रसन्न होकर भीम को हजारों हाथियों का बल प्रदान करने वाले कुंडों का रस पिलाया, जिससे भीमसेन और भी शक्तिशाली हो गए।

23- पांडवों के कुलगुरु कृपाचार्य थे। इनके पिता का नाम शरद्वान था, वे महर्षि गौतम के पुत्र थे। महर्षि शरद्वान ने घोर तपस्या कर दिव्य अस्त्र प्राप्त किए और धनुर्वेद में निपुणता प्राप्त की। यह देखकर देवराज इंद्र भी घबरा गए और उन्होंने शरद्वान की तपस्या तोडऩे के लिए जानपदी नाम की अप्सरा भेजी। इस सुंदरी को देखकर महर्षि शरद्वान का वीर्यपात हो गया। उनका वीर्य सरकंड़ों पर गिरा वह दो भागों में बंट गया। उससे एक कन्या और एक बालक उत्पन्न हुआ। वही बालक कृपाचार्य बना और कन्या कृपी के नाम से प्रसिद्ध हुई।

24- गुरु द्रोणाचार्य महर्षि भरद्वाज के पुत्र थे। एक बार वे सुबह गंगा स्नान करने गए, वहां उन्होंने घृताची नामक अप्सरा को जल से निकलते देखा। यह देखकर उनके मन में विकार आ गया और उनका वीर्य स्खलित होने लगा। यह देखकर उन्होंने अपने वीर्य को द्रोण नामक एक बर्तन में संग्रहित कर लिया। उसी में से द्रोणाचार्य का नाम हुआ।

25- गुरु द्रोणाचार्य का विवाह कृपाचार्य की बहन कृपी से हुआ। कृपी के गर्भ से अश्वत्थामा का जन्म हुआ। उसने जन्म लेते ही अच्चै:श्रवा अश्व के समान शब्द किया, इसी कारण उसका नाम अश्वत्थामा हुआ। वह महादेव, यम, काल और क्रोध के सम्मिलित अंश से उत्पन्न हुआ था।

26- जब द्रोणाचार्य शिक्षा ग्रहण कर रहे थे, तब उन्हें पता चला कि भगवान परशुराम ब्राह्मणों को अपना सर्वस्व दान कर रहे हैं। द्रोणाचार्य भी उनके पास गए और अपना परिचय दिया। द्रोणाचार्य ने भगवान परशुराम से उनके सभी दिव्य अस्त्र-शस्त्र मांग लिए और उनका प्रयोग, रहस्य व उपसंहार की विधि भी सीख ली।

27- द्रोणाचार्य अपने पुत्र अश्वत्थामा को अधिक प्रेम करते थे। उन्होंने शिष्यों को पानी लाने के लिए जो बर्तन दिए थे, उनमें औरों के तो देर से भरते लेकिन अश्वत्थामा का बर्तन सबसे पहले भर जाता, जिससे वह अपने पिता के पास पहले पहुंचकर गुप्त रहस्य सीख लेता। यह बात अर्जुन ने ताड़ ली। अब वह वारुणास्त्र से अपना बर्तन झटपट भरकर द्रोणाचार्य के पास पहुंच जाता। यही कारण था कि अर्जुन और अश्वत्थामा की शिक्षा एक समान हुई।

28- पांडव जब युवा हुए थे उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैलने लगी। यह देखकर दुर्योधन ने उन्हें मारने की योजना बनाई और वारणावत नामक स्थान पर अपने मंत्री पुरोचन से एक महल बनवाया। वह महल सन, राल व लकड़ी से बना था जिससे की वह पलभर में जलकर राख हो जाए। दुर्योधन ने किसी तरह पांडवों को वहां जाने के लिए राजी कर लिया।

29- जब पाण्डव वारणावत जाने लगे तो विदुरजी ने युधिष्ठिर को सांकेतिक भाषा में उस महल का रहस्य युधिष्ठिर को बता दिया और उससे बचने के उपाय भी दिए। विदुरजी की सारी बात युधिष्ठिर ने अच्छी तरह से समझ ली। तब विदुरजी हस्तिनापुर लौट गए। यह घटना फाल्गुन शुक्ल अष्टमी, रोहिणी नक्षत्र की है।

30- पांडव एक साल तक वारणावत नगर में रहे। एक दिन कुंती ने ब्राह्ण भोज कराया। जब सब लोग खा-पीकर चले गए तो वहां एक भील स्त्री अपने पांच पुत्रों के साथ भोजन मांगने आई और वे सब उस रात वहीं सो गए। उसी रात भीम ने स्वयं महल में आग लगा दी और गुप्त रास्ते से बाहर निकल गए। लोगों ने जब सुबह भील स्त्री और अन्य पांच शव देखे तो उन्हें लगा कि पांडव कुंती सहित जल कर मर गए हैं

एक रात के लिए पुनर्जीवित हुए थे महाभारत युद्ध में मारे गए वीर



आज हम आपको महाभारत से जुडी एक अदभुत घटना के बारे में बता रहे है जब महाभारत युद्ध में मारे गए समस्त शूरवीर जैसे की भीष्म, द्रोणाचार्य, दुर्योधन, अभिमन्यु, द्रौपदी के पुत्र, कर्ण, शिखंडी आदि एक रात के लिए पुनर्जीवित हुए थे यह घटना महाभारत युद्ध ख़त्म होने के 15 साल बाद घटित हुई थी। साथ ही हम आपको बताएँगे की धृतराष्ट्, गांधारी, कुन्ती और विदुर की मौत कैसे हुई ? आइए इन सब के बारे में विस्तार पूर्वक जानते है –



राजा बनने के पश्चात हस्तिनापुर में युधिष्ठिर धर्म व न्यायपूर्वक शासन करने लगे। युधिष्ठिर प्रतिदिन धृतराष्ट्र व गांधारी का आशीर्वाद लेने के बाद ही अन्य काम करते थे। इस प्रकार अर्जुन, नकुल, सहदेव, द्रौपदी आदि भी सदैव धृतराष्ट्र व गांधारी की सेवा में लगे रहते थे, लेकिन भीम के मन में धृतराष्ट्र के प्रति हमेशा द्वेष भाव ही रहता। भीम धृतराष्ट्र के सामने कभी ऐसी बातें भी कह देते जो कहने योग्य नहीं होती थी।

15 साल पश्चात धृतराष्ट् गए थे वन :-

इस प्रकार धृतराष्ट्र, गांधारी को पांडवों के साथ रहते-रहते 15 साल गुजर गए। एक दिन भीम ने धृतराष्ट्र व गांधारी के सामने कुछ ऐसी बातें कह दी, जिसे सुनकर उनके मन में बहुत शोक हुआ। तब धृतराष्ट्र ने सोचा कि पांडवों के आश्रय में रहते अब बहुत समय हो चुका है। इसलिए अब वानप्रस्थ आश्रम (वन में रहना) ही उचित है। गांधारी ने भी धृतराष्ट्र के साथ वन जाने में सहमति दे दी। धृतराष्ट्र व गांधारी के साथ विदुर व संजय ने वन जाने का निर्णय लिया।

कार्तिक पूर्णिमा के दिन वन में गए थे धृतराष्ट्र :-

वन जाने का विचार कर धृतराष्ट्र ने युधिष्ठिर को बुलाया और उनके सामने पूरी बात कह दी। पहले तो युधिष्ठिर को बहुत दुख हुआ, लेकिन बाद में महर्षि वेदव्यास के कहने पर युधिष्ठिर मान गए। जब युधिष्ठिर को पता चला कि धृतराष्ट्र व गांधारी के साथ विदुर व संजय भी वन जा रहे हैं तो उनके शोक की सीमा नहीं रही। धृतराष्ट्र ने बताया कि वे कार्तिक मास की पूर्णिमा को वन के लिए यात्रा करेंगे। वन जाने से पहले धृतराष्ट्र ने अपने पुत्रों व अन्य परिजनों के श्राद्ध के लिए युधिष्ठिर से धन मांगा।

भीम ने द्वेषतावश धृतराष्ट्र को धन देने के इनकार कर दिया, तब युधिष्ठिर ने उन्हें फटकार लगाई और धृतराष्ट्र को बहुत-सा धन देकर श्राद्ध कर्म संपूर्ण करवाया। तय समय पर धृतराष्ट्र, गांधारी, विदुर व संजय ने वन यात्रा प्रारंभ की। इन सभी को वन जाते देख पांडवों की माता कुंती ने भी वन में निवास करने का निश्चय किया। पांडवों ने उन्हें समझाने का बहुत प्रयास किया, लेकिन कुंती भी धृतराष्ट्र और गांधारी के साथ वन चलीं गईं।

धृतराष्ट्र से मिलने 1 साल बाद गए थे युधिष्ठिर :-

– धृतराष्ट्र आदि ने पहली रात गंगा नदी के तट पर व्यतीत की। कुछ दिन वहां रुकने के बाद धृतराष्ट्र, गांधारी, कुंती, विदुर व संजय कुरुक्षेत्र आ गए। यहां महर्षि वेदव्यास से वनवास की दीक्षा लेकर ये सभी महर्षि शतयूप के आश्रम में निवास करने लगे। वन में रहते हुए धृतराष्ट्र घोर तप करने लगे। तप से उनके शरीर का मांस सूख गया। सिर पर महर्षियों की तरह जटा धारण कर वे और भी कठोर तप करने लगे। तप से उनके मन का मोह दूर हो गया। गांधारी और कुंती भी तप में लीन हो गईं। विदुर और संजय इनकी सेवा में लगे रहते और तपस्या किया करते थे।

इस प्रकार वन में रहते हुए धृतराष्ट्र आदि को लगभग 1 वर्ष बीत गया। इधर हस्तिनापुर में एक दिन राजा युधिष्ठिर के मन में वन में रह रहे अपने परिजनों को देखने की इच्छा हुई। तब युधिष्ठिर ने अपने सेना प्रमुखों को बुलाया और कहा कि वन जाने की तैयारी करो। मैं अपने भाइयों व परिजनों के साथ वन में रह रहे महाराज धृतराष्ट्र, माता गांधारी व कुंती आदि के दर्शन करूंगा। इस प्रकार पांडवों ने अपने पूरे परिवार के साथ वन जाने की यात्रा प्रारंभ की। पांडवों के साथ वे नगरवासी भी थे, जो धृतराष्ट्र आदि के दर्शन करना चाहते थे।

युधिष्ठिर के शरीर में समा गए थे विदुरजी के प्राण :-

पांडव अपने सेना के साथ चलते-चलते उस स्थान पर आ गए, जहां धृतराष्ट्र, गांधारी और कुंती रहते थे। जब युधिष्ठिर ने उन्हें देखा तो वे बहुत प्रसन्न हुए और मुनियों के वेष में अपने परिजनों को देखकर उन्हें शोक भी हुआ। धृतराष्ट्र, गांधारी और कुंती भी अपने पुत्रों व परिजनों को देखकर बहुत प्रसन्न हुए। जब युधिष्ठिर ने वहां विदुरजी को नहीं देखा तो धृतराष्ट्र से उनके बारे में पूछा। धृतराष्ट्र ने बताया कि वे कठोर तप कर रहे हैं। तभी युधिष्ठिर को विदुर उसी ओर आते हुए दिखाई दिए, लेकिन आश्रम में इतने सारे लोगों को देखकर विदुरजी पुन: लौट गए।

युधिष्ठिर उनसे मिलने के लिए पीछे-पीछे दौड़े। तब वन में एक पेड़ के नीचे उन्हें विदुरजी खड़े हुए दिखाई दिए। उसी समय विदुरजी के शरीर से प्राण निकले और युधिष्ठिर में समा गए। जब युधिष्ठिर ने देखा कि विदुरजी के शरीर में प्राण नहीं है तो उन्होंने उनका दाह संस्कार करने का निर्णय लिया। तभी आकाशवाणी हुई कि विदुरजी संन्यास धर्म का पालन करते थे। इसलिए उनका दाह संस्कार करना उचित नहीं है। यह बात युधिष्ठिर ने आकर महाराज धृतराष्ट्र को बताई। युधिष्ठिर के मुख से यह बात सुनकर सभी को आश्चर्य हुआ।

यमराज के अवतार थे विदुर :-

युधिष्ठिर आदि ने वह रात वन में ही बिताई। अगले दिन धृतराष्ट्र के आश्रम में महर्षि वेदव्यास आए। जब उन्हें पता चला कि विदुरजी ने शरीर त्याग दिया तब उन्होंने बताया कि विदुर धर्मराज (यमराज) के अवतार थे और युधिष्ठिर भी धर्मराज का ही अंश हैं। इसलिए विदुरजी के प्राण युधिष्ठिर के शरीर में समा गए। महर्षि वेदव्यास ने धृतराष्ट्र, गांधारी और कुंती से कहा कि आज मैं तुम्हें अपनी तपस्या का प्रभाव दिखाऊंगा। तुम्हारी जो इच्छा हो वह मांग लो।

तब धृतराष्ट्र व गांधारी ने युद्ध में मृत अपने पुत्रों तथा कुंती ने कर्ण को देखने की इच्छा प्रकट की। द्रौपदी आदि ने कहा कि वह भी अपने परिजनों को देखना चाहते हैं। महर्षि वेदव्यास ने कहा कि ऐसा ही होगा। युद्ध में मारे गए जितने भी वीर हैं, उन्हें आज रात तुम सभी देख पाओगे। ऐसा कहकर महर्षि वेदव्यास ने सभी को गंगा तट पर चलने के लिए कहा। महर्षि वेदव्यास के कहने पर सभी गंगा तट पर एकत्रित हो गए और रात होने का इंतजार करने लगे।

विधवा स्त्रियां अपने पतियों के साथ कूद गई थीं गंगा में :-

रात होने पर महर्षि वेदव्यास ने गंगा नदी में प्रवेश किया और पांडव व कौरव पक्ष के सभी मृत योद्धाओं का आवाहन किया। थोड़ी ही देर में भीष्म, द्रोणाचार्य, कर्ण, दुर्योधन, दु:शासन, अभिमन्यु, धृतराष्ट्र के सभी पुत्र, घटोत्कच, द्रौपदी के पांचों पुत्र, राजा द्रुपद, धृष्टद्युम्न, शकुनि, शिखंडी आदि वीर जल से बाहर निकल आए। उन सभी के मन में किसी भी प्रकार का अंहकार व क्रोध नहीं था। महर्षि वेदव्यास ने धृतराष्ट्र व गांधारी को दिव्य नेत्र प्रदान किए। अपने मृत परिजनों को देख सभी के मन में हर्ष छा गया।

सारी रात अपने मृत परिजनों के साथ बिता कर सभी के मन में संतोष हुआ। अपने मृत पुत्रों, भाइयों, पतियों व अन्य संबंधियों से मिलकर सभी का संताप दूर हो गया। तब महर्षि वेदव्यास ने वहां उपस्थित विधवा स्त्रियों से कहा कि जो भी अपने पति के साथ जाना चाहती हैं, वे सभी गंगा नदी में डुबकी लगाएं। महर्षि वेदव्यास के कहने पर अपने पति से प्रेम करने वाली स्त्रियां गंगा में डुबकी लगाने लगी और शरीर छोड़कर पतिलोक में चली गईं। इस प्रकार वह अद्भुत रात समाप्त हुई।

आग में जल कर हुई धृतराष्ट्र, गांधारी व कुंती की मृत्यु :-

इस प्रकार अपने मृत परिजनों से मिलकर धृतराष्ट्र, गांधारी, कुंती व पांडव बहुत प्रसन्न हुए। लगभग 1 महीना वन में रहने के बाद युधिष्ठिर आदि पुन: हस्तिनापुर लौट आए। इस घटना के करीब 2 वर्ष बाद एक दिन देवर्षि नारद युधिष्ठिर के पास आए। युधिष्ठिर ने उनका स्वागत किया। जब देवर्षि नारद ने उन्हें बताया कि वे गंगा नदी के आस-पास के तीर्थों के दर्शन करते हुए आए हैं तो युधिष्ठिर ने उनसे धृतराष्ट्र, गांधारी व माता कुंती के बारे में पूछा। तब देवर्षि नारद ने उन्हें बताया कि तुम्हारे वन से लौटने के बाद धृतराष्ट्र आदि हरिद्वार चले गए। वहां भी उन्होंने घोर तपस्या की।

एक दिन जब वे गंगा स्नान कर आश्रम आ रहे थे, तभी वन में भयंकर आग लग गई। दुर्बलता के कारण धृतराष्ट्र, गांधारी व कुंती भागने में असमर्थ थे। इसलिए उन्होंने उसी अग्नि में प्राण त्यागने का विचार किया और वहीं एकाग्रचित्त होकर बैठ गए। इस प्रकार धृतराष्ट्र, गांधारी व कुंती ने अपने प्राणों का त्याग कर दिया। संजय ने ये बात तपस्वियों को बताई और वे स्वयं हिमालय पर तपस्या करने चले गए। धृतराष्ट्र, गांधारी व कुंती की मृत्यु का समाचार जब महल में फैला तो हाहाकार मच गया। तब देवर्षि नारद ने उन्हें धैर्य बंधाया। युधिष्ठिर ने विधिपूर्वक सभी का श्राद्ध कर्म करवाया और दान-दक्षिणा देकर उनकी आत्मा की शांति के लिए संस्कार किए

Draupadi Hindi Story

ग्निकुंड से हुआ था द्रोपदी का जन्म
महाभारत ग्रंथ के अनुसार एक बार राजा द्रुपद ने कौरवो और पांडवों के गुरु द्रोणाचार्य का अपमान कर दिया था। गुरु द्रोणाचार्य इस अपमान को भूल नहीं पाए। इसलिए जब पण्डवों और कौरवों ने शिक्षा समाप्ति के पश्चात गुरु द्रोणाचार्य से गुरु दक्षिणा माँगने को कहा तो उन्होंने उनसे गुरु दक्षिणा में राजा द्रुपद को बंदी बनाकर अपने समक्ष प्रस्तुत करने को कहाँ। पहले कौरव राजा द्रुपद को बंदी बनाने गए पर वो द्रुपद से हार गए। कौरवों के पराजित होने के बाद पांडव गए और उन्होंने द्रुपद को बंदी बनाकर द्रोणाचार्य के समक्ष प्रस्तुत किया। द्रोणाचार्य ने अपने अपमान का बदला लेते हुए द्रुपद का आधा राज्य स्वयं के पास रख लिया और शेष राज्य द्रुपद को देकर उसे रिहा कर दिया।
गुरु द्रोण से पराजित होने के उपरान्त महाराज द्रुपद अत्यन्त लज्जित हुये और उन्हें किसी प्रकार से नीचा दिखाने का उपाय सोचने लगे। इसी चिन्ता में एक बार वे घूमते हुये कल्याणी नगरी के ब्राह्मणों की बस्ती में जा पहुँचे। वहाँ उनकी भेंट याज तथा उपयाज नामक महान कर्मकाण्डी ब्राह्मण भाइयों से हुई। राजा द्रुपद ने उनकी सेवा करके उन्हें प्रसन्न कर लिया एवं उनसे द्रोणाचार्य के मारने का उपाय पूछा। उनके पूछने पर बड़े भाई याज ने कहा, “इसके लिये आप एक विशाल यज्ञ का आयोजन करके अग्निदेव को प्रसन्न कीजिये जिससे कि वे आपको वे महान बलशाली पुत्र का वरदान दे देंगे।” महाराज ने याज और उपयाज से उनके कहे अनुसार यज्ञ करवाया। उनके यज्ञ से प्रसन्न हो कर अग्निदेव ने उन्हें एक ऐसा पुत्र दिया जो सम्पूर्ण आयुध एवं कवच कुण्डल से युक्त था। उसके पश्चात् उस यज्ञ कुण्ड से एक कन्या उत्पन्न हुई जिसके नेत्र खिले हुये कमल के समान देदीप्यमान थे, भौहें चन्द्रमा के समान वक्र थीं तथा उसका वर्ण श्यामल था। उसके उत्पन्न होते ही एक आकाशवाणी हुई कि इस बालिका का जन्म क्षत्रियों के सँहार और कौरवों के विनाश के हेतु हुआ है। बालक का नाम धृष्टद्युम्न एवं बालिका का नाम कृष्णा रखा गया जो की राजा द्रुपद की बेटी होने के कारण द्रौपदी कहलाई।
शिवजी के वरदान के कारण मिले पांच पति :-
द्रौपदी पूर्व जन्म में एक बड़े ऋषि की गुणवान कन्या थी। वह रूपवती, गुणवती और सदाचारिणी थी, लेकिन पूर्वजन्मों के कर्मों के कारण किसी ने उसे पत्नी रूप में स्वीकार नहीं किया। इससे दुखी होकर वह तपस्या करने लगी। उसकी उग्र तपस्या के कारण भगवान शिव प्रसन्न हए और उन्होंने द्रौपदी से कहा तू मनचाहा वरदान मांग ले। इस पर द्रौपदी इतनी प्रसन्न हो गई कि उसने बार-बार कहा मैं सर्वगुणयुक्त पति चाहती हूं। भगवान शंकर ने कहा तूने मनचाहा पति पाने के लिए मुझसे पांच बार प्रार्थना की है। इसलिए तुझे दुसरे जन्म में एक नहीं पांच पति मिलेंगे। तब द्रौपदी ने कहा मैं तो आपकी कृपा से एक ही पति चाहती हूं। इस पर शिवजी ने कहा मेरा वरदान व्यर्थ नहीं जा सकता है। इसलिए तुझे पांच पति ही प्राप्त होंगे।
द्रौपदी से पांचाली बनने की कहानी :-
Swayamvar of Draupdi
महाभारत की अन्य पौराणिक कहानियाँ :-कुंती तथा पांडवों ने द्रौपदी के स्वयंवर के विषय में सुना तो वे लोग भी सम्मिलित होने के लिए धौम्य को अपना पुरोहित बनाकर पांचाल देश पहुंचे। कौरवों से छुपने के लिए उन्होंने ब्राह्मण वेश धारण कर रखा था तथा एक कुम्हार की कुटिया में रहने लगे। राजा द्रुपद द्रौपदी का विवाह अर्जुन के साथ करना चाहते थे। लाक्षागृह की घटना सुनने के बाद भी उन्हें यह विश्वास नहीं होता था कि पांडवों का निधन हो गया है, अत: द्रौपदी के स्वयंवर के लिए उन्होंने यह शर्त रखी कि निरंतर घूमते हुए यंत्र के छिद्र में से जो भी वीर निश्चित धनुष की प्रत्यंचा पर चढ़ाकर दिये गये पांच बाणों से, छिद्र के ऊपर लगे, लक्ष्य को भेद देगा, उसी के साथ द्रौपदी का विवाह कर दिया जायेगा। ब्राह्मणवेश में पांडव भी स्वयंवर-स्थल पर पहुंचे। कौरव आदि अनेक राजा तथा राजकुमार तो धनुष की प्रत्यंचा के धक्के से भूमिसात हो गये। कर्ण ने धनुष पर बाण चढ़ा तो लिया किंतु द्रौपदी ने सूत-पुत्र से विवाह करना नहीं चाहा, अत: लक्ष्य भेदने का प्रश्न ही नहीं उठा। अर्जुन ने छद्मवेश में पहुंचकर लक्ष्य भेद दिया तथा द्रौपदी को प्राप्त कर लिया। कृष्ण उसे देखते ही पहचान गये। शेष उपस्थित व्यक्तियों में यह विवाद का विषय बन गया कि ब्राह्मण को कन्या क्यों दी गयी है। अर्जुन तथा भीम के रण-कौशल तथा कृष्ण की नीति से शांति स्थापित हुई तथा अर्जुन और भीम द्रौपदी को लेकर डेरे पर पहुंचे। उनके यह कहने पर कि वे लोग भिक्षा लाये हैं, उन्हें बिना देखे ही कुंती ने कुटिया के अंदर से कहा कि सभी मिलकर उसे ग्रहण करो। पुत्रवधू को देखकर अपने वचनों को सत्य रखने के लिए कुंती ने पांचों पांडवों को द्रौपदी से विवाह करने के लिए कहा। द्रौपदी का भाई धृष्टद्युम्न उन लोगों के पीछे-पीछे छुपकर आया था। वह यह तो नहीं जान पाया कि वे सब कौन हैं, पर स्थान का पता चलाकर पिता की प्रेरणा से उसने उन सबको अपने घर पर भोजन के लिए आमन्त्रित किया। द्रुपद को यह जानकर कि वे पांडव हैं, बहुत प्रसन्नता हुई, किंतु यह सुनकर विचित्र लगा कि वे पांचों द्रौपदी से विवाह करने जा रहे हैं। तभी व्यास मुनि ने अचानक प्रकट होकर एकांत में द्रुपद को उन छहों के पूर्वजन्म की कथा सुनायी कि- एक वार रुद्र ने पांच इन्द्रों को उनके दुरभिमान स्वरूप यह शाप दिया था कि वे मानव-रूप धारण करेंगे। उनके पिता क्रमश: धर्म, वायु, इन्द्र तथा अश्विनीकुमार (द्वय) होंगे। भूलोक पर उनका विवाह स्वर्गलोक की लक्ष्मी के मानवी रूप से होगा। वह मानवी द्रौपदी है तथा वे पांचों इन्द्र पांडव हैं। व्यास मुनि के व्यवस्था देने पर द्रौपदी का विवाह क्रमश: पांचों पांडवों से कर दिया गया। इस तरह से पांचो पांडवो से विवाह करके द्रौपदी पांचाली कहलाई।

श्री कृष्ण और दुर्योधन थे समधी

महाभारत के युद्ध में कौरवों के विरूद्ध पांडवों का साथ देने वाले श्री कृष्ण दुर्योधन के समधी थे। श्री कृष्ण के पुत्र ने दुर्योधन की पुत्री का हरण कर विवाह किया था।बात यूँ है की दुर्योधन के एक पुत्री थी जिसका नाम लक्ष्मणा था। जब लक्षमणा बड़ी हुई तो दुर्योधन ने उसका विवाह करने के लिए एक स्वयंवर का आयोजन किया। उस स्वयंवर में बहुत से वीर पराक्रमी राज कुमार उपस्थित हुए। पर राजकुमारी लक्ष्मणा, राजकुमार साम्ब को चाहती थी जो की श्री कृष्ण और रानी जाम्बवती के पुत्र थे। साम्ब और लक्ष्मणा पहले से ही एक दूसरे से प्यार करते थे और वो यह भी जानते थे की कौरव यह विवाह नहीं होने देंगे। इसलिए साम्ब ने  स्वयंवर से पहले ही  लक्ष्मणा का हरण कर लिया। साम्ब जब लक्ष्मणा का हरण करके जाने लगा तो कौरवों ने उसका पीछा किया और उसे पकड़कर बंदी बना लिया।
Mahabharat Gyan - shri krishna and Duryodhana
श्री कृष्ण और दुर्योधन (Demo Pic)
जब साम्ब को बंदी बनाने की बात द्वारका पहुंची तो सारे यदुवंशी कौरवों के साथ युद्ध करने की तैयारी करने लगे, लेकिन श्री कृष्ण के बड़े भाई बलराम ने उन्हें रोक दिया और कहाँ की मैं स्वयं हस्तिनापुर जाकर उन्हें ले के आयूंगा।बलराम ने हस्तिनापुर पहुंचकर कौरवों से साम्ब व लक्ष्मणा को उनके साथ ससम्मान द्वारका भेजने का आग्रह किया जिसे कौरवों ने ठुकरा दिया तथा बलराम का खूब अपमान किया।  अपने अपमान और कौरवों के अहंकार से क्रोधित होकर बलराम ने अपने हल से हस्तिनापुर को धरती से उखाड़ दिया और उसे गंगा नदी में डुबोने के लिए गंगा नदी की और खीचने लगे।
कौरवों ने जब यह देखा की बलराम अपने पराक्रम से समस्त हस्तिनापुर को गंगा में डुबो देंगे तो उन्होंने बलराम से माफ़ी मांगी और साम्ब व लक्ष्मणा को पति-पत्नी के रूप में उनके साथ विदा किया। इस तरह दुर्योधन और श्री कृष्ण समधी बने

Shri krishna ki mrityu kaise hui

अठारह दिन चले महाभारत के युद्ध में रक्तपात के सिवाय कुछ हासिल नहीं हुआ। इस युद्ध में कौरवों के समस्त कुल का नाश हुआ, साथ ही पाँचों पांडवों को छोड़कर पांडव कुल के अधिकाँश लोग मारे गए। लेकिन इस युद्ध के कारण, युद्ध के पश्चात एक और वंश का खात्मा हो गया वो था ‘श्री कृष्ण जी का यदुवंश’।
Shri krishna
गांधारी ने दिया था यदुवंश के नाश का श्राप :
महाभारत युद्ध की समाप्ति के बाद जब युधिष्ठर का राजतिलक हो रहा था तब कौरवों की माता गांधारी ने महाभारत युद्ध के लिए श्रीकृष्ण को दोषी ठहराते हुए श्राप दिया की जिस प्रकार कौरवों के वंश का नाश हुआ है ठीक उसी प्रकार यदुवंश का भी नाश होगा। गांधारी के श्राप से विनाशकाल आने के कारण श्रीकृष्ण द्वारिका लौटकर यदुवंशियों को लेकर प्रयास क्षेत्र में आ गये थे। यदुवंशी अपने साथ अन्न-भंडार भी ले आये थे। कृष्ण ने ब्राह्मणों को अन्नदान देकर यदुवंशियों को मृत्यु का इंतजार करने का आदेश दिया था। कुछ दिनों बाद महाभारत-युद्ध की चर्चा करते हुए सात्यकि और कृतवर्मा में विवाद हो गया। सात्यकि ने गुस्से में आकर कृतवर्मा का सिर काट दिया। इससे उनमें आपसी युद्ध भड़क उठा और वे समूहों में विभाजित होकर एक-दूसरे का संहार करने लगे। इस लड़ाई में श्रीकृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न और मित्र सात्यकि समेत सभी यदुवंशी मारे गये थे, केवल बब्रु और दारूक ही बचे रह गये थे। यदुवंश के नाश के बाद कृष्ण के ज्येष्ठ भाई बलराम समुद्र तट पर बैठ गए और एकाग्रचित्त होकर परमात्मा में लीन हो गए। इस प्रकार शेषनाग के अवतार बलरामजी ने देह त्यागी और स्वधाम लौट गए।
बहेलिये का तीर लगने से हुई श्रीकृष्ण की मृत्यु
बलराम जी के देह त्यागने के बाद जब एक दिन श्रीकृष्ण जी  पीपल के नीचे ध्यान की मुद्रा में बैठे हुए थे, तब उस क्षेत्र में एक जरा नाम का बहेलिया आया हुआ था। जरा एक शिकारी था और वह हिरण का शिकार करना चाहता था। जरा को दूर से हिरण के मुख के समान श्रीकृष्ण का तलवा दिखाई दिया। बहेलिए ने बिना कोई विचार किए वहीं से एक तीर छोड़ दिया जो कि श्रीकृष्ण के तलवे में जाकर लगा। जब वह पास गया तो उसने देखा कि श्रीकृष्ण के पैरों में उसने तीर मार दिया है। इसके बाद उसे बहुत पश्चाताप हुआ और वह क्षमायाचना करने लगा। तब श्रीकृष्ण ने बहेलिए से कहा कि जरा तू डर मत, तूने मेरे मन का काम किया है। अब तू मेरी आज्ञा से स्वर्गलोक प्राप्त करेगा।
बहेलिए के जाने के बाद वहां श्रीकृष्ण का सारथी दारुक पहुंच गया। दारुक को देखकर श्रीकृष्ण ने कहा कि वह द्वारिका जाकर सभी को यह बताए कि पूरा यदुवंश नष्ट हो चुका है और बलराम के साथ कृष्ण भी स्वधाम लौट चुके हैं। अत: सभी लोग द्वारिका छोड़ दो, क्योंकि यह नगरी अब जल मग्न होने वाली है। मेरी माता, पिता और सभी प्रियजन इंद्रप्रस्थ को चले जाएं। यह संदेश लेकर दारुक वहां से चला गया। इसके बाद उस क्षेत्र में सभी देवता और स्वर्ग की अप्सराएं, यक्ष, किन्नर, गंधर्व आदि आए और उन्होंने श्रीकृष्ण की आराधना की। आराधना के बाद श्रीकृष्ण ने अपने नेत्र बंद कर लिए और वे सशरीर ही अपने धाम को लौट गए।
श्रीमद भागवत के अनुसार जब श्रीकृष्ण और बलराम के स्वधाम गमन की सूचना इनके प्रियजनों तक पहुंची तो उन्होंने भी इस दुख से प्राण त्याग दिए। देवकी, रोहिणी, वसुदेव, बलरामजी की पत्नियां, श्रीकृष्ण की पटरानियां आदि सभी ने शरीर त्याग दिए। इसके बाद अर्जुन ने यदुवंश के निमित्त पिण्डदान और श्राद्ध आदि संस्कार किए।
इन संस्कारों के बाद यदुवंश के बचे हुए लोगों को लेकर अर्जुन इंद्रप्रस्थ लौट आए। इसके बाद श्रीकृष्ण के निवास स्थान को छोड़कर शेष द्वारिका समुद्र में डूब गई। श्रीकृष्ण के स्वधाम लौटने की सूचना पाकर सभी पाण्डवों ने भी हिमालय की ओर यात्रा प्रारंभ कर दी थी। इसी यात्रा में ही एक-एक करके पांडव भी शरीर का त्याग करते गए। अंत में युधिष्ठिर सशरीर स्वर्ग पहुंचे थे।
वानर राज बाली ही था ज़रा बहेलिया
संत लोग यह भी कहते हैं कि प्रभु ने त्रेता में राम के रूप में अवतार लेकर बाली को छुपकर तीर मारा था। कृष्णावतार के समय भगवान ने उसी बाली को जरा नामक बहेलिया बनाया और अपने लिए वैसी ही मृत्यु चुनी, जैसी बाली को दी थी